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यहां स्वास्थ्य सेवाएं हैं 'बीमार', मरीजों का कैसे सुधरेगा हाल

आज ये कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि स्वास्थ्य सेवाएं खुद बीमार हैं। दरअसल बिना किसी बैकअप प्लान सरकार ने एक चलते अस्पताल को मेडिकल कॉलेज में तब्दील कर दिया।

By Raksha PanthariEdited By: Updated: Fri, 22 Mar 2019 08:37 PM (IST)
यहां स्वास्थ्य सेवाएं हैं 'बीमार', मरीजों का कैसे सुधरेगा हाल
देहरादून, जेएनएन। ज्यादा वक्त नहीं गुजरा, जब उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों की भांति दूनवासियों को भी बेहतर उपचार के लिए दिल्ली या चंडीगढ़ का रुख करना पड़ता था। लेकिन, पिछले एक दशक में शहर में कई नामचीन मल्टी स्पेशिलिटी हॉस्पिटल खुले हैं। बावजूद इसके स्वास्थ्य की राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। मरीज की आर्थिक स्थिति और सरकारी-गैर सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की कसौटी पर फर्क करें तो मौजूदा हेल्थ सिस्टम में असंतुलन की खाई दिखती है। स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने से लेकर इसकी पहुंच तक, पारंपरिक तौर पर स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा कुछ बिखरे स्वरूप में नजर आता है। 

ट्रैक से उतरा दून अस्पताल 

शहर का प्रमुख अस्पताल दून चिकित्सालय सरकार की गलत नीतियों का शिकार हुआ है। बिना किसी बैकअप प्लान सरकार ने एक चलते अस्पताल को मेडिकल कॉलेज में तब्दील कर दिया। आने वाले समय में बेशक सुविधाएं बढ़ेंगी, पर परिवर्तन काल में तमाम व्यवस्थाएं मरीजों को दर्द दे रही हैं। अस्पताल बूढ़ी मशीनों का भार ढो रहा है। यहां जब-तब कोई न कोई मशीन खराब रहती है। ऐसे में लोगों की भीड़ प्राइवेट लैब की तरफ जाने को मजबूर होती है। उस पर कभी दवा का संकट और कभी अन्य सामान की दिक्कत। शहर के अन्य सरकारी अस्पतालों कोरोनेशन, प्रेमनगर अस्पताल, नेत्र चिकित्सालय, रायपुर अस्पताल का सूरतेहाल भी इससे जुदा नहीं है। 

सारा बोझ एक ही अस्पताल पर 

ऐसा लगता है कि सरकार अनुभवों से भी सीख नहीं लेना चाहती। एक के बाद एक घटनाएं स्वास्थ्य सेवाओं को आइना दिखा रही हैं। पर हुक्मरान इसमें झांकने को तैयार नहीं। सुरक्षित मातृत्व का डंका जरूर पीटा जाता है, पर अस्पतालों का हाल बुरा है। सरकारी दावों की हकीकत जाननी है तो जरा दून महिला अस्पताल का एक चक्कर मार आइये। यहां न सिर्फ दून बल्कि प्रदेश के दुरुह क्षेत्र की महिलाएं भी भर्ती मिलेंगी। यानी पहाड़ के अस्पताल इस लायक भी नहीं बन सके हैं कि सुरक्षित प्रसव करा सकें। 

उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी और तमाम क्षेत्रों से मरीज बस दून ठेले जा रहे हैं। उस पर शहर का हाल देखिए। यहां रायपुर से लेकर प्रेमनगर अस्पताल में प्रसव की सुविधा है। हाल में गांधी नेत्र चिकित्सालय को मैटरनिटी केयर यूनिट के तौर पर विकसित किया गया, पर दबाव फिर भी अकेले दून महिला अस्पताल पर है। सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारी स्वास्थ्य इकाईयों में आपसी तालमेल की कितनी कमी है। विकल्प है पर इसका ठीक ढंग से इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। 

मरीजों को बेड तक नहीं उपलब्ध 

प्रदेश के सबसे बड़े अस्पतालों में शुमार इस चिकित्सालय में गर्भवती महिलाओं को बेड तक मयस्सर नहीं हैं। अस्पताल पर क्षमता से चार गुना ज्यादा दबाव है। जिस कारण महिलाओं की डिलीवरी अव्यवस्थाओं के बीच होती है। स्वास्थ्य विभाग के अधीन रहते अस्पताल में 111 बेड स्वीकृत थे। लेकिन मरीजों के अत्याधिक दबाव के कारण इससे कई अधिक मरीज भर्ती किए जाते थे। अब यह अस्पताल मेडिकल कॉलेज का हिस्सा है। 

एमसीआइ के मानकों के अनुसार दून मेडिकल कॉलेज की महिला विंग में 40 बेड होने चाहिए। उसी मुताबिक डॉक्टरों की संख्या निर्धारित है। फौरी तौर पर अस्पताल में किसी तरह 113 बेड एडजस्ट किए गए हैं। लेकिन, रोजाना करीब 150-55 मरीज भर्ती किए जा रहे हैं। इस स्थिति में एक बेड पर दो-दो महिलाएं भी भर्ती हैं। 

9 लाख की आबादी पर पांच बेड का आइसीयू 

आम जन को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए एक तरफ सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, वहीं राजधानी दून में गंभीर मरीजों के इलाज के लिए मात्र एक ही सरकारी अस्पताल में आइसीयू (इंसेंटिव केयर यूनिट) की सुविधा है। शहर की करीब 09 लाख की आबादी के लिए आइसीयू में मात्र पांच बेड की व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली बयां करने में अपने आप में काफी है। मजबूरन गंभीर मरीजों को बेड न मिलने पर निजी अस्पतालों में रेफर करना पड़ रहा है। 

निक्कू वार्ड की भी हालत बुरी 

सरकारी अस्पतालों की अगर बात करें तो नवजातों की सांस का भी शायद कोई मोल नहीं है। कहने के लिए मात्र दून महिला अस्पताल में सिक न्यूबॉर्न केयर यूनिट (एसएनसीयू) है। जहां वेंटीलेटर तक की पर्याप्त सुविधा नहीं है। मात्र एक वेंटिलेटर काम कर रहा है। वहीं अस्पताल में अधिकतर बेबी वार्मर भी खराब पड़े हैं। 

अल्ट्रासाउंड के लिए लंबी वेटिंग 

सरकारें दावा सुरक्षित मातृत्व का करती हैं और व्यवस्थाएं ऐसी कि गर्भवती महिलाओं का दर्द बढ़ा रही हैं। प्रदेश के प्रमुख अस्पतालों में शुमार दून महिला अस्पताल में गर्भवती को अल्ट्रासाउंड के लिए ही एक माह तक का इंतजार करना पड़ रहा है। जिसका कारण है कि अस्पताल में मात्र एक ही रेडियोलॉजिस्ट तैनात है। जबकि मरीजों का दबाव कई ज्यादा है। 

इधर कुआं, उधर खाई 

बड़े या कॉरपोरेट अस्पतालों में उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सेवाएं जरूर हैं, पर गरीब जनता में इतना सामर्थ्य नहीं कि इनका रुख कर सकें। यही कारण है कि निजी क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के बावजूद एक बड़ा वर्ग अब भी स्तरीय स्वास्थ्य सेवाओं से अछूता है। निजी क्षेत्र के शुल्क में भारी असमानता है। क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट तक सरकार अभी लागू नहीं करा पाई है। 

उपचार के लिए महंगे खर्च को लोग विवश हैं और गरीब मरीजों के लिए 'इधर कुआं उधर खाई' जैसे हैं। लोगों की इस मुश्किल को दूर करने के लिए राज्य सरकार ने अटल आयुष्मान योजना शुरू की। डेढ़ सौ के करीब अस्पताल इस योजना में इम्पैनल्ड किए गए हैं। इसमें अधिकांश अस्पतालों ने सभी बीमारियों की बजाय कुछ ही पैकेज लिए हैं, लेकिन मरीजों को इसकी जानकारी नहीं है। 

इम्पैनल्ड अस्पतालों के पैकेज में कई बीमारियां शामिल न होने से मरीज मुश्किल में फंस रहे हैं। कई मरीजों को बिना इलाज लौटना पड़ रहा है जबकि कई को इलाज के बदले पैसे चुकाने पड़ रहे हैं। ऐसे में यह भी एक बड़ी चुनौती है। 

तोड़ना होगा एजेंटों का मायाजाल 

सरकारी अस्पतालों में कथित एजेंटों का सिंडिकेट भी तेजी से फैल रहा है। यह लोग मरीज को निजी अस्पताल में भर्ती होने के लिए प्रेरित करते हैं। उसके रेफर होने पर बहला फुसलाकर किसी एक अस्पताल में छोड़ देते हैं, जहां उसका आर्थिक शोषण होता है। इस सिंडिकेट को ध्वस्त करना होगा। 

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