जंगल की बात : जंगल की जंग में जिंदगी दांव पर, दोनों चुकानी पड़ रही है बड़ी कीमत
उत्तराखंड में मनुष्य और वन्यजीवों के मध्य संघर्ष नहीं रुक रहे हैं। इस कारण दोनों को ही बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। आए दिन वन्यजीवों के हमलों के समाचार आ रहे हैं। उत्तराखंड में इस मामले में गंभीरता से कदम उठाने की जरूरत है।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Sat, 11 Sep 2021 11:27 AM (IST)
केदार दत्त, देहरादून। जरा कल्पना कीजिए! उस मां के दिल पर क्या गुजरती होगी, जिसके जिगर के टुकड़े को गुलदार, बाघ ने मार डाला हो। उस कृषक की मनोस्थिति क्या होगी, जिसके खेतों में खड़ी फसल हाथी, सूअर जैसे जंगली जानवरों ने चौपट कर दी हो। यह सोचने मात्र से ही सिहरन दौड़ जाती है, लेकिन 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में यह तो मानो नियति बन चुकी है। मनुष्य और वन्यजीवों के मध्य छिड़ी इस जंग में दोनों को ही बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। आए दिन वन्यजीवों के हमलों की घटनाएं सुर्खियां बन रही हैं। सूरतेहाल सवाल उठना लाजिमी है कि यह संघर्ष आखिर कब थमेगा। इस जंग में जिंदगी कब तक दांव पर लगी रहेगी। उत्तराखंड को बने 21 साल होने जा रहे हैं, मगर यह सवाल जस का तस है। लिहाजा, गंभीरता से ऐसे कदम उठाने की दरकार है, जिससे मनुष्य भी सुरक्षित रहे और वन्यजीव भी।
गजराज की आजादी पर लगा है ग्रहण
हाथियों के लिहाज से उत्तराखंड भले ही समृद्ध हो, लेकिन यहां इनकी आजादी पर ग्रहण लगा है। एक दौर में यहां हाथियों के लिए वासस्थल बेहतर था। वे यमुना बेसिन से लेकर बिहार तक विचरण करते थे। आज तस्वीर बदल चुकी है। हालांकि, उत्तराखंड के जंगलों में हाथियों का कुनबा बढ़ रहा है और इनकी संख्या दो हजार के आसपास है, लेकिन अब आजादी के मामले में पहले जैसी बात कहां। हाथी आज राजाजी व कार्बेट टाइगर रिजर्व समेत 12 वन प्रभागों की सीमा में कैद होकर रह गए हैं। स्थिति ये है कि जंगल की देहरी से बाहर कदम रखते ही इनका मानव से टकराव हो रहा है। पड़ताल हुई तो बात सामने आई कि सिकुड़ते जंगल, घटते भोजन, बढ़ते प्रदूषण, बेहिसाब शोर शराबा, अवैध शिकार, पानी की कमी, अनुपयोगी वनस्पतियों के प्रसार जैसे कारणों ने गजराज की मुश्किल बढ़ाई है। लिहाजा, इस ओर ध्यान देने की जरूरत है।
वन्यजीवों को भी है आराम की जरूरतछह नेशनल पार्क, सात अभयारण्य और चार कंजर्वेशन रिजर्व वाले उत्तराखंड में अब सभी संरक्षित क्षेत्रों में स्थित पर्यटक जोन सालभर खुले रखने का निर्णय लिया गया है। इसे लेकर विशेषज्ञ सवाल भी उठाने लगे हैं। उनका कहना है कि सिर्फ राजस्व ही नहीं, वन्यजीवों के लिहाज से भी परिस्थितियों को जांचा-परखा जाना चाहिए। सवाल ये भी है कि यदि किसी संरक्षित क्षेत्र में सालभर आवाजाही रहेगी तो क्या इससे वन्यजीवों को आराम मिल पाएगा। शायद पूर्व में वन्यजीवों को आराम मिल सके और प्रजननकाल में कोई डिस्टरबेंस न हो, इसीलिए संरक्षित क्षेत्रों में साल में कुछ समय पर्यटन गतिविधियां बंद रखने का निर्णय लिया गया होगा। हालांकि, वन महकमे ने मंथन किया और परिस्थितियों के हिसाब से संरक्षित क्षेत्र खुले अथवा बंद रखने के बारे में निर्णय लेने का अधिकार संरक्षित क्षेत्रों के निदेशकों को दिया है। देखना होगा कि आने वाले दिनों में वे क्या निर्णय लेते हैं।
बंदरों के आतंक से मिल सकेगी निजातउत्तराखंड के शहरी क्षेत्र हों अथवा ग्रामीण, उत्पाती बंदरों ने नींद उड़ाई हुई है। फसलों को नुकसान पहुंचा रहे बंदर अब घरों के भीतर तक धमक रहे हैं। भगाने पर ये काटने को पीछे दौड़ रहे हैं। कई लोग इनके हमलों में जख्मी हो चुके हैं। हालांकि, इस समस्या के निराकरण के मद्देनजर बंदरों के बंध्याकरण की मुहिम शुरू की गई है। बंध्याकरण के बाद बंदरों को सुदूर जंगल में छोड़ा जा रहा है। फिलहाल, राज्य में तीन स्थानों पर इसके लिए बंदरबाड़े बनाए गए हैं, लेकिन यहां बंध्याकरण की रफ्तार कुछ धीमी है। हालांकि, अब प्रदेश में कुछ और बंदरबाड़े बनाने का निर्णय लिया गया है, जिसके लिए प्रतिकरात्मक वन रोपण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैंपा) के तहत धनराशि भी मंजूर हो गई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि बंदरबाड़ों के निर्माण में तेजी आने के साथ ही बंदरों के आतंक से निजात दिलाने को प्रभावी कदम उठेंगे।
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