ढोल-दमाऊ गढ़वाल के बाद प्रमुख वाद्य यंत्र है डौंर-थाली, जानिए इनके बारे में
डौंर-थाली गढ़वाल के प्रमुख वाद्य माने गए हैं। डौंर शिव के डमरू का ही एक रूप है। जागर यानी देवनृत्यों में जागरी ढोल की तरह ही डमरू को लाकड़ और हाथ से बजाता है।
देहरादून, जेएनएन। ढोल-दमाऊ के बाद डौंर-थाली गढ़वाल के प्रमुख वाद्य माने गए हैं। डौंर (डमरू) शिव के डमरू का ही एक रूप है। जागर (घडियाला) यानी देवनृत्यों में जागरी (डौंर्या या वादक) ढोल की तरह ही डमरू को लाकड़ (सोटे) और हाथ से बजाता है। जबकि, डौंर्या का सहयोगी (जो कि कांसे की होती है) को बायें हाथ के अंगूठे पर थाली को टिकाकर दायें हाथ से उस पर लाकुड़ का प्रहार करता है। डौंर-थाली वादन से एक अद्भुत ध्वनि उत्पन्न होती है, जिससे देवी-देवता और पितर अपने पश्वों (खास महिला या पुरुष) पर अवतरित हो उठते हैं। महत्वपूर्ण यह कि डौंर कभी अकेला नहीं बजता, बल्कि इसके साथ संगत के लिए कांसे की थाली का होना अनिवार्य है।
दोनों घुटनों के बीच रखकर बजता है डौंर
चर्म वाद्यों में डौंर ही एकमात्र ऐसा वाद्य है, जिसे ढोल की तरह कंधे से नहीं लटकाया जाता। डमरू से मिलते-जुलते इस वाद्य को दोनों घुटनों के बीच इस तरह स्थिर किया जाता है कि ऊपर की पुड़ी को दायें हाथ की यष्टिका और नीचे की पूड़ी को घुटने के नीचे से होते हुए बायें हाथ से बजाया जा सके। घुटनों के दबाव और यष्टिका के प्रकीर्ण प्रहार से डौंर से अमूमन गुरु गंभीर नाद उद्धृत होती है, जो सर्वथा रौद्र एवं लोमहर्षक होती है। खास बात यह कि डौंर-थाली वादन केवल पुरोहित ही करते हैं।
डौंर में 22 से लेकर 84 ताल बजने तक का उल्लेख
चपटे वर्गाकार डमरूनुमा आकार वाला यह वाद्य सांदण या खमेर की लकड़ी से बनाया जाता है। इसके दोनों सिरों पर बकरे, घुरड़ या काकड़ की खाल मढ़ी जाती है। कुमाऊं में डौंर का प्रचलन कम है, लेकिन गढ़वाल का यह लोकजीवन में रचा-बसा प्रमुख वाद्य है। डौंर का प्रयोग स्थानीय देवी-देवताओं के जागर लगाने (आह्वान) में किया जाता है। लोक वाद्यों के जानकार डौंर में 22 तरह की तालों का उल्लेख करते हैं। जबकि, कुछ लोक वादकों ने डौंर में 36 और 84 ताल बजाए जाने का उल्लेख किया है।
डौंर का सहायक वाद्य कांसे की थाली
कांसे की थाली को स्थानीय भाषा में लोक गायक 'कंसासुरी थाल' नाम से पुकारते हैं। सहायक वाद्य के रूप में इसका प्रयोग मात्र जागरों में किया जाता है। डौंर की ताल पर इसे पयां की लकड़ी के पतले सोटों से बजाया जाता है। देवी-देवताओं के जागर (आह्वान गीत) के अलावा इसका अन्य अवसरों पर वाद्य के रूप में प्रयोग नहीं के बराबर देखा गया है। अभी तक इसे सिर्फ पुरुष ही बजाते आ रहे हैं।
अलग ही अंदाज में बजाई जाती है थाली
गढ़वाल क्षेत्र में कांसे की थाली को बजाने का तरीका अलग ही है। इसके लिए पतीले के आकार वाली तांबे की तौली (बर्तन) में आधे से अधिक पानी भर लिया जाता है। तौली को जमीन पर मोटे कपड़े के गोल छल्ले के ऊपर रखा जाता है। ताकि हिलने या थाली को बजाते समय वह गिर न जाए। तौली के मुंह पर ऊपर से कांसे की थाली उल्टी रखी जाती है और फिर बायें हाथ से पकड़कर उससे तौली पर प्रहार किया जाता है। इस ताल को पूर्णता देने के लिए थाली की पीठ पर दायें हाथ से लकड़ी के पतले सोटे से प्रहार करते हैं। इस प्रक्रिया से एक सम्मोहित करने वाली ताल उत्पन्न होती है।
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पाथा पर रखकर भी बजती है थाली
कई इलाकों को कांसे की थाली को तांबे के बर्तन की बजाय पाथा (पुराने समय में अनाज तौलने वाला लकड़ी का बर्तन) के ऊपर रखा जाता है। पाथा में चावल भरे जाते हैं, ताकि वह पलटे नहीं।
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