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उत्‍तराखंड में खास अंदाज में मनाया जाता है दीपावली का पर्व

उत्‍तराखंड में गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक दीपावली माने का कुछ अलग ही अंदाज है। कहीं 11 दिन बाद तो कहीं एक माह बाद यह त्‍योहार मनाया जाता है।

By Sunil NegiEdited By: Updated: Sat, 26 Oct 2019 08:39 PM (IST)
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उत्‍तराखंड में खास अंदाज में मनाया जाता है दीपावली का पर्व
देहरादून, जेएनएन। देश के साथ ही उत्‍तराखंड में भी दीपावली का पर्व पूरे उल्‍लास के साथ मनाया जाता है। यहां गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक दीपावली माने का कुछ अलग ही अंदाज है। कहीं 11 दिन बाद तो कहीं एक माह बाद यह त्‍योहार मनाया जाता है। इस पर्व पर स्थानीय फसलों के व्यंजन भी बनाए जाते है। 

देहरादून के जौनसार बावर में कहीं नई दीपावली और कहीं मनेगी बूढ़ी दीपावली

जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर की 39 खतों से जुड़े करीब 400 से गांवों में से डेढ़ सौ से अधिक गांवों में नई दीपावली मनाई जा रही है, जबकि अन्य गांवों में देशवासियों के दीपावली मनाने के ठीक एक महिने बाद पहाड़ी बूढ़ी दीपावली मनाई जाएगी। इसके अलावा पछवादून के बिंहार क्षेत्र में भी बूढ़ी दीपावली मनाने की परंपरा है। जौनसार के कोटी-कनासर में 32 साल के लंबे इंतजार बाद हिमाचल प्रदेश प्रवास पर आए चालदा महासू महाराज के आगमन की खुशी में क्षेत्रवासी पहली बार नई दीपावली का जश्न मना रहे हैं। जौनसार बावर में प्रदूषण मुक्त परंपरागत तरीके से दिवाली मनाने का निराला अंदाज है। यहां शनिवार को पहली होलियात निकालने के साथ पांच दिन तक दीपावली का जश्न चलेगा। जिसमें बड़ी संख्या में लोग देव आराधना के साथ दीपावली का जश्न मनाएंगे।

जिले में मनाई जाती है तीन दीपावली

नई टिहरी में कार्तिक की दीपावली के ठीक एक महीने बाद जिले में कई जगहों पर मंगशीर की दीपावली भी धूमधाम से मनाई जाती है, जबिक कई जगहों व कार्तिक दीपावली के 11 दिन बाद इगाश दीपावली भी मनाई जाती है। मंगशीर की दीपावली को स्थानीय बोली में बड़ी बग्वाल भी कहा जाता है। इस पर्व पर  स्थानीय फसलों के व्यंजन भी बनाए जाते है। टिहरी जनपद के भिलंगना प्रखंड के बूढ़ाकेदार, जौनपुर व कीर्तिनगर के कई गांवों में मंगशीर मंगसीर की दीपावली धूमधाम से मनाई जाती है। इस दीपावली पर बूढ़ाकेदार क्षेत्र में  गांव से बाहर रहने वाले लोग भी इस दीपावली को मनाने गांव पहुंचते हैं। 

बूढ़ाकेदार में इस दीपावली को गुरू कैलापीर देवता के नाम पर मनाया जाता है। बताया जाता है कि कैलापीर देवता हिमांचल से भ्रमण पर निकले और बूढ़ाकेदार में एक स्थान पर रूक गए। देवता को यह जगह पसंद आ गई। इसके  बाद देवता ने यहीं पर रूकने का निर्णय लिया। इस पर ग्रामीणों ने खुशी  जताते हुए लकड़ी जलाकर रोशनी से देवता का स्वागत किया। तब से ग्रामीण इस दीपावली को मनाते हैं। मंगशीर की दीपावली पर ग्रामीण देवता के साथ खेतों में दौड़ भी लगाते हैं। क्षेत्र की खुशहाली व अच्छी फसल के लिए ग्रामीण देवता के साथ दौड़ लगाते हैं।

कीर्तिनगर के मलेथा व जौनपुर के कुछ गांवों में भी यह दीपावली मनाई जाती है। इसके पीछे कारण यह है कि कार्तिक के महीने वीर भड़ माधो सिंह भंडारी गोरखाओं के साथ युद्ध करने तिब्बत बार्डर  पर गया था और एक माह याने मंगशीर में युद्ध लड़कर वापास आया था, जिसके बाद  ग्रामीण इस दीपावली को मनाते हैं। इस अवसर पर स्थानीय फसलों के पकवान  तैयार किए जाते हैं। वहीं जिला मुख्यालय के नजदीकी गांवों में कार्तिक  दीपावली के 11 दिन बाद इगाश दीपावली मनाई जाती है। बताया जाता है कि  क्षेत्र का एक व्यक्ति जो काफी प्रसिद्ध था वह जंगल में लकड़ी लेने गया और वह रास्ता भटक गया 11 दिन बाद जब वह वापस आया तो लोगों ने दीपावली मनाई।

दीपावली पर सीमोओं पर रहता है खासा उत्‍साह

दीपावली के पर्व पर सीमाओं में भी उत्साह रहता है। आइटीबीपी व सेना चौकियों में दीपावली पर बड़ा खाने का आयोजन के साथ पूजन, आतिशबाजी होती है। चमोली के जोशीमठ ब्‍लॉक के सीमावर्ती सुरक्षा चौकियों में भी दीपावली का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। फर्क इतना कि यहां पर दीये जलाए जाते हैं। आतिशबाजी भी प्रतीक स्वरूप होती है। चौकियों में बड़ा खाना भी आयोजित होता है। दीपावली से पहले जो भी जवान छुट्टी से वापस लौटता है वह दीये वो आतिशबाजी का सामान पोस्ट पर ले जाता है। दूसरी ओर, सीमावर्ती गांवों में हालांकि, लोग निचले स्थानों में लौटने लगे हैं, लेकिन नीति मलारी सहित अन्य गांवों में दीपावली का पर्व धूमधाम से परंपरागत मनाया जाता है। जनजाति के लोग परंपरागत परिधानों में सज-धज कर पंचायती चौक में भोटिया जनजाति नृत्य का आयोजन करते हैं। इस दौरान मवेशियों को भी पकवान के साथ पूजा जाता है। घरों में स्थानीय पकवान बनते हैं। जिसे एक दूसरे को खिलाया जाता है।

तिब्बत विजय के उत्सव में एक माह बाद होती है दीपावली 

पूरे देश में जहां दीपावली का पर्व कार्तिक माह की अमावस्या को मनाया जाता है वहीं सीमांत जनपद उत्तरकाशी में कार्तिक अमावस्या से ठीक एक माह बाद दीपावली यानी मंगशीर की बग्वाल का उत्सव होता है। कार्तिक माह की दीपावली को उत्तरकाशी क्षेत्र में शहरी चकाचौंध के चलते समान्य रूप से मनाया जाता है। 

मंगशीर की बग्वाल (दीपावली) के उत्सव का अपना अलग महत्व है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि मंगशीर की बग्वाल गढ़वाली सेना की तिब्बत विजय का उत्सव है। इस बार यह उत्सव 26 व 27 नवंबर को मनाया जाएगा। गंगोत्री तीर्थ क्षेत्र ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन शोध ग्रंथ के लेखक उमा रमण सेमवाल बताते हैं कि सन 1627-28 के बीच गढ़वाल नरेश महिपत शाह के शासनकाल के दौरान जब तिब्बती लुटेरे गढ़वाल की सीमाओं के अंदर आके लूटपाट करते थे तो राजा ने माधो सिंह भंडारी व लोदी रिखोला के नेतृत्व में चमोली के पैनखंडा और उत्तरकाशी के टकनौर क्षेत्र से सेना भेजी थी।

सेना विजय करते हुए दावाघाट (तिब्बत) तक पहुंच गई थी। कार्तिक मास की दीपावली के लिए माधोसिंह भंडारी घर नहीं पहुंच पाए थे। तब उन्होंने घर में संदेश पहुंचाया था कि जब वे जीतकर लौटेंगे तब ही दीपावली मनायी जाएगी। युद्ध के मध्य में ही एक माह पश्चात माधोसिंह अपने गांव मलेथा पहुंचे। तब उत्सव पूर्वक दीपावली मनायी गई। तब से अब तक मंगशीर के माह इस बग्वाल को मनाने की परंपरा गढ़वाल में प्रचलित है। इस दीपावली में रात भर भैलो नृत्य के साथ रासों तांदी नृत्य चलता है।

जाड़-भोटिया माघ अमावस्या को मनाते हैं दीपावली 

भटवाड़ी ब्लॉक के बगोरी गांव और डुंडा ब्लॉक के वीरपुर में जाड़ भोटिया समुदाय लोसर के अवसर पर होली, दीपावली और दशहरा एक साथ मनाते हैं। लोसर पर्व हर वर्ष फरवरी व मार्च माह के अंतराल में आता है। दशहरा से पहली रात को जाड़-भोटिया समुदाय के लोग पकवान बनाते हैं तथा मशाल जुलूस निकालते हैं। जिससे वे दीपावली पर्व कहते हैं। तीन दिन के लोसर पर्व के अंतिम दिन होली उत्सव मनाया जाता है। बगोरी के पूर्व प्रधान भवान ङ्क्षसह राणा कहते हैं कि लोसर का त्योहार बौद्ध पंच के अनुसार नए साल के आगाज रूप में मनाते हैं। इस त्योहार में समुदाय के लोग होली, दशहरा और दीपावली का भी त्योहार एक साथ बड़े धूमधाम से पारंपरिक परंपराओं के अनुसार मनाते आए हैं। प्रत्येक वर्ष माघ माह की अमावस्या को दीपावली का पर्व मनाया जाता है। जिसमें चीड़ के छिलकों को लाकर मशाल जलाया जाता है। क्षेत्र के खुशहाली के साथ ही सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती है।

कुछ खास है कुमाऊं की दीपावली, जानिए

कुमाऊं में शरद पूर्णिमा (कोजागर) से दीप पर्व का श्रीगणेश हो जाता है। इसी शुभ दिन से आकाश दीप जलाने का विधान शुरू होता है जो एक माह तक लगातार प्रज्ज्वलित किया जाता है। दीपावली की श्रृंखला धनतेरस के दिन से शुरू होती है। इसी दिन से ऐपण की लोक विधा के जरिये गेरू (पवित्र लाल मिट्टी) की पुताई कर बिस्वार (चावल के आटे का लेप) से घर आंगन व मंदिरों में सजावट की जाती है। धनतेरस के दूसरे दिन छोटी दीपावली मनाने की परंपरा है। तीसरे दिन (इस बार रविवार) महालक्ष्मी पूजन की प्रात:काल से ही तैयारी शुरू हो जाती है। घर की बहुएं व बेटियां गन्ने के तीन तनों से मिलजुल कर मां लक्ष्मी की प्रतिमा निर्माण करती हैं। इसकी घर के मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कर देर सायं शुभ मुहूर्त पर  विशेष पूजन कर प्रसाद बनाया जाता है।

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कुमाऊं में महालक्ष्मी पूजन के दिन खासतौर पर केले, दही व घी के मिश्रण से मालपुवे व पुवे बनाने का रिवाज है। साथ ही उड़द के बड़े, पुड़ियां, घर के चावल की खीर आदि का भी महालक्ष्मी को भोग लगाया जाता है। इसके बाद ही आतिशबाजी का दौर चलता है। महालक्ष्मी पर्व के दूसरे दिन गोसंरक्षण का संकल्प ले गोवर्द्धन पूजन की जाती है। अगले दिन भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन विवाहित बेटियां मायके पहुंच भाइयों का च्यूणपूजन (करीब पांच दिनों से तांबे के बर्तन में भिगो कर रखे गए लाल पर्वतीय धान को ओखली में कूट कर तैयार च्यूणे) कर मंगल व सुखी जीवन की कामना करती है। महालक्ष्मी पूजन के 11वें दिन एकादशी को कुमाऊं में बूढ़ी दीपावली मनाने की परंपरा है।

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