जरा सोचें, आवाजाही को रास्ता न मिले तो कैसा महसूस करेंगे आप, कुछ यही झुंझलाहट रहती है हाथियों में
Elephant Corridor उत्तराखंड में वन्यजीव घर में कैद होकर रहने वाली झुंझलाहट से दो-चार हो रहे हैं। इसकी वजह एक से दूसरे जंगल में आवाजाही के रास्तों का बाधित होना है। ऐसे में भला मानव और हाथियों में टकराव नहीं होगा तो क्या होगा।
By Raksha PanthriEdited By: Updated: Sat, 09 Oct 2021 01:17 PM (IST)
केदार दत्त, देहरादून। Elephant Corridor जरा सोचिये, यदि आवाजाही को रास्ता नहीं होगा या फिर बाधित होगा तो आप कैसा महसूस करेंगे। जाहिर है कि आप घर अथवा क्षेत्र विशेष में कैद होकर रह जाएंगे और यह आपकी झल्लाहट को भी बढ़ाएगा। उत्तराखंड में वन्यजीव ऐसी ही झुंझलाहट से दो-चार हो रहे हैं। वजह, एक से दूसरे जंगल में आवाजाही के रास्तों का बाधित होना। ऐसे में टकराव नहीं होगा तो क्या होगा।
खासकर, हाथियों के मामले में तो यह दिक्कत अधिक देखने में आ रही है। साढ़े छह हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के दायरे में उनके आने-जाने के 11 गलियारे बाधित हैं। कहीं मानव बस्ती उग आई है तो कहीं सड़क व रेल मार्गों ने दिक्कत खड़ी की है। ऐसे में आवाजाही के लिए वे नए रास्ते तलाशेंगे ही और वे तलाश भी रहे हैं। पूर्व में ऐसे रास्ते चिह्नित करने की बात हुई थी, लेकिन ठोस पहल अब तक नहीं हो पाई है। व्यवहार तो हमें ही बदलना होगा
वन्यजीव विविधता वाले उत्तराखंड में राज्य गठन के बाद से एक विषय सबसे अधिक चर्चा में है। वह है यहां लगातार गहराता मानव-वन्यजीव संघर्ष। हर रोज ही वन्यजीवों के हमले सुर्खियां बन रहे हैं, मगर समस्या जस की तस है। यह भी बड़ा सवाल है कि क्या वाकई में हम इसे लेकर गंभीर हैं अथवा नहीं। वन्यजीव अपनी हद में रहें, इसके लिए तमाम उपायों की बात तो हो रही है, लेकिन इनके सार्थक नतीजे निकलते नहीं दिख रहे।
सूरतेहाल, इस मसले को लेकर सामूहिक प्रयासों की दरकार है। संघर्ष की रोकथाम के लिए सरकार तो प्रभावी कदम उठाए ही, आमजन का भी सजग होना आवश्यक है। सोचने वाली बात ये है कि वन्यजीव तो स्वयं का व्यवहार बदलेंगे नहीं, ऐसे में मनुष्य को ही अपना व्यवहार बदलना होगा। यानी, सह-अस्तित्व की भावना के अनुरूप हमें वन्यजीवों के साथ रहना सीखना होगा और इसी के अनुरूप उपाय भी करने होंगे।
विद्यार्थी भी सीखेंगे संरक्षण का पाठ
पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड की जैव और वन्यजीव विविधता उसे अलग पांत में खड़ा करती है। बावजूद इसके पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वन एवं वन्यजीवों को लेकर तमाम तरह की चुनौतियां भी मुंहबाए खड़ी हैं। विकास और जंगल में सामंजस्य का अभाव, अवैध कटान, आग जैसे कारण वनों पर भारी पड़ रहे तो वन्यजीवों के बढ़ते हमले भी चुनौती बनकर सामने आए हैं।
इन चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक है कि भावी पीढ़ी को विद्यार्थी जीवन से ही इनके बारे में जानकारी देकर संरक्षण में उसकी भागीदारी सुनिश्चित की जाए। वन महकमे की समझ में भी यह बात आई और उसने प्रदेश के स्कूल-कालेजों में गठित 13 हजार ईको क्लब को वन एवं वन्यजीव संरक्षण से जोडऩे का निश्चय किया। इस मुहिम के तहत ईको क्लब से जुड़े विद्याथियों को यह पाठ पढ़ाना भी शुरू कर दिया गया है। जरूरत इसमें निरंतरता की है।
वानिकी क्षेत्र में आमजन की सहभागिता योजना कोई भी हो, बगैर जनसहयोग के परवान नहीं चढ़ सकती। फिर चाहे वन्यजीव प्रबंधन हो अथवा वानिकी प्रबंधन। वानिकी क्षेत्र में जनसहभागिता तो वन प्रबंधन का अहम हिस्सा है। इस लिहाज से देखें तो उत्तराखंड में समुदाय की वानिकी में वन पंचायतों के माध्यम से भागीदारी है। वन पंचायतों का लंबा इतिहास रहा है और स्थानीय समुदाय वन रूपी प्राकृतिक धरोहर के संरक्षण में भागीदार रहे हैं।
यह भी पढ़ें- उत्तराखंड में वन्यजीव बढ़े तो चिंता और चुनौतियों में भी इजाफावैसे भी वन पंचायतों की व्यवस्था वाला उत्तराखंड देश का एकमात्र राज्य है। बदली परिस्थितियों में वन प्रबंधन में राज्य की 12 हजार से अधिक वन पंचायतें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। यानी वन पंचायतों का सक्रिय सहयोग लेने के मद्देनजर वन महकमे को ठोस रणनीति तैयार करनी होगी। इस कड़ी में वन पंचायतों के माध्यम से पिरुल व लीसा टिपान, नर्सरियों का विकास जैसी गतिविधियों में शामिल किया जाना चाहिए। इससे वन पंचायतें तो सुदृढ़ होंगी ही, ग्रामीण आर्थिकी भी संवरेगी।
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