करीब 4500 वर्ग किमी में फल-फूल रहा हाथियों का कुनबा, आबादी वाले क्षेत्रों में धमक ने फिर बढ़ाई चिंता
हाथियों का कुनबा खूब फल-फूल रहा है। ये बात अलग है कि कार्बेट व राजाजी टाइगर रिजर्व के साथ ही 12 वन प्रभागों में इनकी परंपरागत आवाजाही के रास्ते मानवीय दखल से प्रभावित हुए हैं। नतीजतन आबादी वाले क्षेत्रों में अक्सर हाथियों की धमक सुर्खियां बन रही।
By Raksha PanthriEdited By: Updated: Sat, 18 Sep 2021 01:20 PM (IST)
केदार दत्त, देहरादून। उत्तराखंड में यमुना से लेकर शारदा नदी तक करीब साढ़े हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में हाथियों का कुनबा खूब फल-फूल रहा है। ये बात अलग है कि कार्बेट व राजाजी टाइगर रिजर्व के साथ ही 12 वन प्रभागों में इनकी परंपरागत आवाजाही के रास्ते मानवीय दखल से प्रभावित हुए हैं। नतीजतन आबादी वाले क्षेत्रों में अक्सर हाथियों की धमक सुर्खियां बन रही। देहरादून और ऋषिकेश के बीच भी इन दिनों हाथियों का मूवमेंट अधिक है। इस मार्ग से हाथी नरेंद्र नगर वन प्रभाग तक पहुंचते हैं। इन दिनों ये फिर से आबादी वाले क्षेत्रों में धमकने लगे हैं। हाल में हाथी ने मालदेवता क्षेत्र में एक युवक को मार डाला था। जाहिर है कि इस क्षेत्र में हाथियों की आवाजाही के रास्तों को देखते हुए वन विभाग और आमजन दोनों को सजग, सतर्क रहना होगा। वन विभाग ने क्षेत्र में गश्त जरूर बढ़ा दी है, लेकिन सतर्कता बेहद आवश्यक है।
संरक्षित क्षेत्रों की धारण क्षमता का आकलनकिसी भी क्षेत्र के पर्यावरण प्रबंधन को वहां की कैरिंग कैपिसिटी (धारण क्षमता) महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सरल शब्दों में कहें तो धारण क्षमता का तात्पर्य क्षेत्र विशेष के पर्यावरणीय तंत्र द्वारा अपने भीतर धारण किए जाने वाले जीवों की अधिकतम संख्या से है। इसके आधार पर प्रबंधन के कदम बढ़ाए जाते हैं। संरक्षित क्षेत्रों के लिए भी कैङ्क्षरग कैपिसिटी उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी अन्य क्षेत्रों के लिए। लंबे अर्से के बाद उत्तराखंड के वन महकमे की समझ में भी यह बात आई है। अब उसने राज्य में स्थित सभी छह राष्ट्रीय उद्यानों, सात अभयारण्यों व चार कंजर्वेशन रिजर्व की धारण क्षमता का आकलन कराने की ठानी है। समग्र रूप में देखें तो यह समय की मांग भी है। जिस हिसाब से बाघ, गुलदार, हाथी समेत दूसरे वन्यजीवों की तादाद बढ़ रही है, उसे देखते हुए यह आवश्यक भी है। देखना होगा कि यह पहल कब तक परवान चढ़ेगी।
आखिर कब तक बनेगी उम्मीदों की सड़कअब जबकि उत्तराखंड में चुनावी मौसम करीब है तो जंगल से गुजरने वाली एक सड़क फिर से चर्चा में है। यह है गढ़वाल-कुमाऊं मंडल को सीधे आपस में जोडऩे वाली कंडी रोड, जो रामनगर से कालागढ़, कोटद्वार होते हुए लालढांग को जोड़ती है। राज्य गठन के बाद से यह सड़क सरकारों की प्राथमिकता में रही, लेकिन पर्यावरणीय पेच के कारण बात आगे नहीं बढ़ पा रही है। यद्यपि, कंडी रोड के कोटद्वार-लालढांग हिस्से के निर्माण को कसरत हुई तो अब इसके जल्द आकार लेने की उम्मीद है, लेकिन कोटद्वार-कालागढ़-रामनगर हिस्से का निर्माण कब होगा, कोई नहीं जानता। असल में यह हिस्सा कार्बेट टाइगर रिजर्व से होकर गुजरता है और इसी में पर्यावरणीय पेच अधिक है। ये बात अलग है कि चुनावी मौसम आने के मद्देनजर सियासी दल कंडी रोड को लेकर चर्चा करने लगे हैं। जाहिर है कि आने वाले दिनों में इसे लेकर वादों की झड़ी लगना तय है।
अब नहीं दून वैली नोटिफिकेशन की जरूरतजरा याद कीजिए। बेहतरीन आबोहवा की पहचान रखने वाली दून घाटी में वर्ष 1989 से पहले लाइम स्टोन के लिए किस तरह यहां की पहाड़ियों का सीना चीरा गया। इससे पर्यावरण की सेहत कितनी खराब हुई, यह किसी से छिपा नहीं है। इस सबके मद्देनजर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने एक फरवरी 1989 को दून वैली नोटिफिकेशन जारी कर यहां ऐसी गतिविधियों पर रोक लगा दी थी। यह बदस्तूर जारी है। हालांकि, कुछ समय पहले नोटिफिकेशन में कुछ राहत दी गई थी, जिसमें उद्योगों को श्रेणीबद्ध किया गया। अब जबकि परिस्थितियां बदल चुकी हैं और किसी भी योजना, खनन आदि के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआइए) कराना अनिवार्य है। इसे देखते हुए उच्च स्तर पर ये बात उठने लगी है कि ईआइए होने के मद्देनजर अब इस नोटिफिकेशन की प्रासंगिकता नहीं रह गई है। राज्य की ओर से इस बारे में केंद्र सरकार को भी अवगत कराया गया है।
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