जंगल की बात : सरकारी नहीं, हम सबका है जंगल; इसे बचाना सभी की जिम्मेदारी
उत्तराखंड में गर्मियों में तापमान बढ़ने के साथ ही जंगल अधिक धधकने लगते हैं। ऐसे में जंगलों को आग से बचाना प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी है। वन विभाग को भी चाहिए कि वह जंगल बचाने में स्थानीय लोगों का सक्रिय सहयोग ले।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Sat, 26 Feb 2022 10:19 AM (IST)
केदार दत्त, देहरादून। मनुष्य के अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न हैं जंगल। इनकी सेहत ठीक है तो आबोहवा भी स्वच्छ रहेगी, जो उत्तम स्वास्थ्य के लिए बेहद आवश्यक है। कोरोनाकाल ने भी इसकी सीख दी है। ऐसे में यह भाव त्यागना होगा कि जंगल सरकारी हैं। ये सरकारी नहीं हम सबके हैं और इन्हें बचाना सभी का दायित्व है। अब जबकि वनों के लिए सबसे संवेदनशील समय, यानी अग्निकाल शुरू हो चुका है, तो इस दिशा में सजग व सचेत रहने की जरूरत है। बात हो रही है वनों को आग से बचाने की। सभी जानते हैं कि गर्मियों में तापमान बढ़ने के साथ ही राज्य में जंगल अधिक धधकते हैं। ऐसे में जंगलों को बचाना प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी है। वन विभाग को भी चाहिए कि वह जंगल बचाने में स्थानीय नागरिकों का सक्रिय सहयोग ले। साथ ही बेहतर कार्य करने वाली ग्राम पंचायतों व समूहों के लिए प्रोत्साहन की व्यवस्था सुनिश्चित करे।
कस्तूरा मृगों को बचाने की चुनौतीउत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों की चोटियां इन दिनों बर्फ से लकदक हैं। बीते दिवस हुई बर्फबारी से बर्फ की चादर और मोटी हो गई है। इसके साथ ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले कस्तूरा मृग समेत दूसरे वन्यजीव निचले क्षेत्रों की तरफ आने लगे हैं। ऐसे में इनकी सुरक्षा को लेकर चिंता, चुनौती दोनों ही अधिक बढ़ गए हैं। निचले क्षेत्रों में आने पर उच्च हिमालयी क्षेत्र के वन्यजीवों की जान सांसत में रहती है। शिकारी और तस्कर भी इस मौके की ताक में रहते हैं। पूर्व में ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। इसे देखते हुए उच्च हिमालयी क्षेत्रों से लगे निचले क्षेत्रों में अधिक सक्रियता और सजगता बरतने की आवश्यकता है। इसके लिए निरंतर गश्त के साथ ही वन विभाग को अन्य कदम उठाने होंगे। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है खुफिया तंत्र, जिसे सशक्त बनाने की आवश्यकता है। ग्रामीणों को भी वन्यजीवों की सुरक्षा में योगदान देना होगा।
बारिश की बूंदे सहेजना है जरूरीराज्य में प्रतिवर्ष औसतन 1521 मिमी बारिश होती है, जिसमें अकेले मानसून का योगदान 1229 मिमी का है। हर साल ही बारिश का यह पानी यूं ही जाया हो जाता है। यदि इसका कुछ हिस्सा भी सहेज लिया जाए तो इससे न सिर्फ जलस्रोत रीचार्ज होंगे, बल्कि जंगलों के लिए तो इस प्रकार की पहल किसी संजीवनी से कम नहीं होगी। असल में, हर साल ही आग से जंगलों को भारी क्षति पहुंचती है। ऐसे में बारिश की बूंदों को जंगल में सहेजने के लिए ठोस उपाय किए जाएं तो वहां नमी बनी रहेगी और आग का खतरा भी टलेगा। पूर्व में संसदीय समिति भी जंगलों को आग से बचाने के लिए वनों में वर्षा जल संरक्षण पर जोर दे चुकी है। यद्यपि, विभाग ने इस दिशा में कदम उठाए हैं, लेकिन इसमें और अधिक गंभीरता के साथ तेजी लाने की जरूरत है। आखिर, प्रश्न वनों को बचाने का है।
बर्ड वाचिंग के लिए गंभीरता आवश्यकवन्यजीव विविधता के लिए प्रसिद्ध उत्तराखंड की पक्षी विविधता भी बेजोड़ है। देशभर में पाई जाने वाली पक्षियों की 1310 प्रजातियों में से 710 यहां चिह्नित की गई हैं। मैदानी क्षेत्रों से लेकर उच्च हिमालयी तक के हिस्से में रंग-विरंगे पक्षियों का मनमोहक संसार हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता है। बर्ड वाचिंग के शौकीनों के लिए तो उत्तराखंड की धरती स्वर्ग से कम नहीं है। इसके बावजूद बर्ड वाचिंग वैसा आकार नहीं ले पाया है, जिसकी आवश्यकता है। वह भी तब जबकि, इसकी अपार संभावनाएं हैं। फिर चाहे वह राज्य के छह राष्ट्रीय उद्यान हों अथवा सात अभयारण्य और चार कंजर्वेशन रिजर्व या फिर दूसरे वन प्रभाग, सभी जगह पक्षियों का मधुर कलरव आनंदित कर देता है। यद्यपि, वन विभाग ने वर्ष 2014 से यहां के संरक्षित व आरक्षित क्षेत्रों में स्प्रिंग बर्ड फेस्टिवल की शुरुआत की है, लेकिन इसे बड़े फलक पर ले जाने की जरूरत है।
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