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उत्तराखंडः इद्रदेव की मेहरबानी से फायर सीजन में कुछ राहत की उम्मीद

वर्तमान में उत्तराखंड में नियमित अंतराल में वर्षा-बर्फबारी हो रही है। ऐेसे में जंगलों में अच्छी-खासी नमी है। इससे फरवरी तक जंगलों की आग के लिहाज से राहत मिल सकती है।

By BhanuEdited By: Updated: Sat, 01 Feb 2020 12:08 PM (IST)
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उत्तराखंडः इद्रदेव की मेहरबानी से फायर सीजन में कुछ राहत की उम्मीद
देहरादून, केदार दत्त। जैवविविधता के लिए मशहूर 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में फायर सीजन (अग्निकाल) की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। हर साल फायर सीजन के दरम्यान 15 फरवरी से मानसून के सक्रिय होने तक बड़े पैमाने पर राज्य के जंगलों में वन संपदा आग की भेंट चढ़ जाती है। ऐसे में वन महकमे के अफसरों के माथों पर चिंता के बादल भी मंडराने लगे हैं। 

हालांकि, वर्तमान में उत्तराखंड पर इंद्रदेव मेहरबान हैं। नियमित अंतराल में वर्षा-बर्फबारी हो रही है। बर्फ से लकदक चोटियां चांदी सी मानिंद चमक रही हैं। ऐेसे में जंगलों में फिलहाल अच्छी-खासी नमी है, जिससे फरवरी तक जंगलों की आग के लिहाज से राहत मिल सकती है। अलबत्ता, चिंता ये साल रही कि यदि मौसम ने अचानक करवट बदली और पारे ने उछाल भरी तो दिक्कतें बढ़ सकती है। हालांकि, इसके मद्देनजर महकमा तैयारियों में जुट गया हैं, ताकि परिस्थितियों से मुकाबला किया जा सके।

प्रतिवर्ष 1994 हे. जंगल तबाह

उत्तराखंड के जंगलों में हर साल होने वाली अग्नि दुर्घटनाएं यहां की जैवविविधता को भारी नुकसान पहुंचा रही हैं। जंगल की आग के बीते एक दशक के आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2010 से 2019 तक प्रदेश में 19945 हेक्टेयर जंगल तबाह हुआ। इस लिहाज से देखें तो प्रतिवर्ष औसतन 1994 हेक्टेयर जंगल आग से प्रभावित हो रहा है। इसमें वनों, वनस्पतियों, पङ्क्षरदों, छोटे वन्यजीवों के साथ ही पारिस्थितिकी में संतुलन बनाए रखने में सहायक जीवों की क्षति उठानी पड़ रही है। 

यही नहीं, हर साल जंगलों में नए प्लांटेशन भी आग की भेंट चढ़ रहे हैं। सूरतेहाल, समझा जा सकता है कि जंगलों की आग यहां के पारिस्थितिकी तंत्र को कितना नुकसान पहुंचा रही है। ये बात अलग है कि वन विभाग आग से नुकसान के आकलन को लेकर आज भी पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है, जिसमें क्षति के प्रति हेक्टेयर के मानक बेहद कम हैं।

यहां झांपा ही है सबकुछ

दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, लेकिन उत्तराखंड में जंगलों की आग बुझाने के लिए आज भी झांपा (पेड़ों की हरी टहनियों को तोड़कर बनाया जाने वाला झाडू़) ही कारगर हथियार है। ये बात अलग है कि आग बुझाने के लिए समय-समय पर आधुनिक उपकरणों की बात होती आई है, मगर धरातल पर इसके सकारात्मक नतीजे नजर नहीं दिखे। 

ज्यादा वक्त नहीं गुजरा, जब वनकर्मियों को फायर टूल किट देने के साथ ही उपकरणों में बदलाव पर जोर दिया गया था। ये मुहिम भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाई। असल में उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर इसी हिसाब से उपकरण बनाने की जरूरत है, मगर इसे लेकर गंभीरता का अभाव खटक रहा है। पूर्व में ये दावा भी किया गया था कि कृत्रिम बारिश के जरिये आग पर काबू पाया जाएगा। इसके लिए एक कंपनी से बात भी हुई, मगर इस पहल के आकार लेेने का इंतजार है।

जनसहयोग के मोर्चे पर नाकाम

यह सार्वभौमिक सत्य है कि जनसहयोग से किसी भी योजना को आसानी से मुकाम तक पहुंचाया जा सकता है, लेकिन वन महकमे को इस मोर्चे पर खास सफलता नहीं मिल पाई है। असल में वन कानूनों की बंदिशों के कारण वन और जन के बीच बनी खाई को अभी तक पाटा नहीं जा सका है। ऐसा नहीं है कि लोगों ने जंगलों से मुंह मोड़ लिया हो, लेकिन सरकारीकरण के भाव ने कुछ दूरी बढ़ाई है। 

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ऐसे में विभाग को लोगों को यह अहसास दिलाना होगा कि जंगल उनके अपने हैं। जनता को जंगलों से मिलने वाले हक-हकूक को देने के लिए नियमों में भी शिथिलता बरतनी होगी। इसके साथ ही वन महकमे के पास वन पंचायतों के रूप में करीब सवा लाख लोगों की फौज भी मौजूद है। वन पंचायतों को कुछ रियायतें व सुविधाएं देकर उनके सदस्यों का भी आग बुझाने की मुहिम में साथ लिया जाना चाहिए।

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