World Music Day: संवेदनाओं का जादुई अहसास कराता है लोक संगीत
जब सभ्यता का उद्भव नहीं हुआ था संगीत तब भी अस्तित्व में था। इसीलिए संगीत को ईश्वर की वाणी कहा गया है जिसे ऋषि-मुनियों ने तृतीय वेद सामवेद में संग्रहीत किया है।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Sun, 21 Jun 2020 09:32 AM (IST)
देहरादून, दिनेश कुकरेती। World Music Day संगीत सनातन है। जब सभ्यता का उद्भव नहीं हुआ था, संगीत तब भी अस्तित्व में था। इसीलिए संगीत को ईश्वर की वाणी कहा गया है, जिसे ऋषि-मुनियों ने तृतीय वेद 'सामवेद' में संग्रहीत किया है। व्यवहार में संगीत की उत्पत्ति प्रकृति यानी पंच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, आकाश व पृथ्वी) से मानी गई है, जिसे हम लोकगीतों में महसूस कर सकते हैं। लोकगीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियां गाती हैं, फसलें गाती हैं और थिरक उठता है मन का मयूर।
संगीत का फलक बहुत व्यापक है। उसमें जितना डूबते चले जाओ, गहराई उतनी ही बढ़ती चली जाती है। लेकिन, उसका लोक पक्ष बेहद सहज एवं सरल है, जिसके दर्शन लोकगीतों में होते हैं। उत्सव, कौथिग, मेलों आदि अवसरों पर जब मधुर कंठों में लोक समूह गीत गाते हैं तो वातावरण महकने लगता है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगायक एवं संगीतकार नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं कि संगीतमयी प्रकृति के गुनगुनाने पर लोकगीतों का स्फुरण हो उठना स्वाभाविक ही है। लोकगीत तो प्रकृति के उद्गार हैं। ये साहित्य की छंदबद्धता एवं अलंकारों से मुक्त रहकर भी मानवीय संवेदनाओं के संवाहक हैं। इसलिए इनसे जो माधुर्य प्रवाहित होता है, वह हमें तन्मयता के लोक में पहुंचा देता है।
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नेगी कहते हैं कि विभिन्न ऋतुओं के सहजतम प्रभाव से अनुप्राणित लोकगीत स्वयं में प्रकृति रस को समेटे हुए हैं। बारहमासा, छैमासा, चौमासा, झुमैलो आदि गीत इस हकीकत को रेखांकित करते हैं। प्रसिद्ध लोकगायक एवं संगीतकार स्व.चंद्र सिंह राही एक जगह लिखते हैं कि लोकगीतों हमें पावसी (वर्षा ऋतु) संवेदनाओं का जादुई अहसास कराते हैं। लोक संगीत या लोकगीत अत्यंत प्राचीन एवं मानवीय संवेदनाओं के सहजतम उद्गार हैं। ये लेखनी के माध्यम से नहीं, बल्कि लोक जिह्वा का सहारा लेकर जनमानस से नि:सृत हुए और इसीलिए आज भी जिंदा हैं।
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