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औली के ढलानों पर बिखरा कूड़ा आयोजकों की बदइंतजामी की करता रहा चुगली

हालिया दिनों में विश्व प्रसिद्ध औली स्की प्रेमियों और सैलानियों का खासा जमावड़ा लगाया पर औली के ढलानों पर बिखरा कूड़ा आयोजकों की बदइंतजामी की चुगली करता रहा।

By Sunil NegiEdited By: Updated: Sun, 23 Feb 2020 08:27 PM (IST)
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औली के ढलानों पर बिखरा कूड़ा आयोजकों की बदइंतजामी की करता रहा चुगली
देहरादून, देवेंद्र सती। सरकारी कामकाज का अंदाज ही निराला होता है। किसी को पसंद आए, ना आए या फिर साख पर बट्टा लगे, इससे किसी को शायद कोई सरोकार नहीं। करेंगे वही, जो ठान ली। इसी रवायत को आगे बढ़ाया पर्यटन विभाग और नेशनल विंटर गेम्स फेडरेशन ने। दोनों ने मिलकर हालिया दिनों में विश्व प्रसिद्ध औली स्की प्रेमियों और सैलानियों का खासा जमावड़ा लगाया। बेहतरीन तीन दिनी आयोजन, पांच हजार से ज्यादा लोग इसके गवाह बने। उनका जुटना लाजिमी था, कई साल बाद औली की ढलानों पर बर्फ की मोटी चादर जो बिछी थी। सो आयोजक भी अति उत्साह में थे। इतने तक तो ठीक था, लेकिन इस उत्साह में जाने-अनजाने वह औली को 'दर्द' भी दे बैठे। कई दिनों बाद तक औली के ढलानों पर बिखरा कूड़ा आयोजकों की बदइंतजामी की चुगली करता रहा। वो तो भला हो जोशीमठ नगरपालिका का, जिसने औली की इस पीड़ा को समझा और मरहम लगाया।

हादसों का सफर

'ये बंबई शहर हादसों का शहर है, यहां रोज-रोज हर मोड़-मोड़ पर होता है कोई न कोई हादसा'। वर्षों पहले फिल्मी गीत की ये पंक्तियां मुंबई के ट्रैफिक की असलियत दर्शाने वाली हैं। यह पंक्तियां उत्तराखंड के पहाड़ों पर भी सटीक बैठती हैं। पिछले सप्ताह उत्तरकाशी जिले में तीन दिन के भीतर दो बड़ हादसे कुछ ऐसी ही कहानी बयां कर रहे हैं। एक में पांच लोगों ने जान गंवाई तो दूसरे में सात। हादसे क्यों हुए इसका पता तो जांच के बाद ही चल पाएगा, लेकिन दबी जुबां में जो चर्चाएं चल रही हैं, वो है रफ्तार। दरअसल, जब संकरी और सर्पीली सड़कें थीं तो हादसों की दर कम थी, ज्यों-ज्यों सड़कें चौड़ी हुईं हादसे हद पार करने लगे। सड़कों पर रफ्तार का लुत्फ रोमांच भले ही दे रहा हो, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि 'जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम वो फिर नहीं आते।' 

जनपथ पर साहब

यूं तो साहब शब्द का मतलब ही है ऑर्डर देने वाला। साहब से शाही अंदाज की बू सी आती है। आमतौर पर पब्लिक के बीच साहब का यही अंदाज चर्चित रहता है, लेकिन रुद्रप्रयाग के जिलाधिकारी मंगेश घिल्डियाल का अंदाज हटकर है। वह पैदल गांव की ओर निकल पड़ते हैं और ग्रामीणों की समस्या सुनने के बाद स्कूल में तख्त पर रात बिताते हैं। वह स्कूल में बच्चों के साथ मिड डे मील का लुत्फ भी उठाते हैं। पिछले दिनों बर्फ से ढके केदारनाथ जाने के लिए निकली आपदा प्रबंधन टीम की वापस लौट आई तब जिलाधिकारी और एसपी नौ फीट बर्फ में 16 किलोमीटर पैदल चलते हुए अपने अफसरों के लिए प्रेरक बन गए। यही वजह है कि अपने इस जज्बे के कारण वह आम जन के बीच खासे लोकप्रिय भी हैं। वह जानते हैं कि जनता के दिलों तक पहुंचने का रास्ता राजपथ नहीं, जनपथ से गुजरता है।

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...और अंत में

काले आखरों के आगे है तो सिर्फ अंधेरा। सवाल भले ही सुलग रहा हो, लेकिन जवाब अभी ठंडा ही है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा की हालत को लेकर सवाल तो जब-तब उठते रहते हैं, लेकिन स्कूलों के भवन को लेकर स्थिति और भी दयनीय है। जर्जर भवनों में बरसात के दिनों में बच्चे छाता लेकर बैठते हैं तो ध्यान ब्लैक बोर्ड की बजाय छत पर रहता है। डर यह है कि छत कब नीचे आ जाए, कहा नहीं जा सकता। बात सिर्फ बरसात की नहीं हैं, पिछले दिनों रुद्रप्रयाग जिले के एक स्कूल में बच्चे की जान इसलिए चली गई, क्यों कि जिस नल से वह पानी पीने गया था, उसमें करंट था। अब जिस घर की रोशनी बुझी वो तो सवाल पूछेंगे ही। यूं तो स्कूल अक्षर-अक्षर दीप जला कर शिक्षा का उजियारा फैलाने के लिए हैं, लेकिन यहां मासूमों की जिंदगी को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। 

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