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गूगल ने बनाया चिपको वुमेन का डूडल, जानिए कौन थीं

गूगल ने चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी को डूडल बनाकर श्रद्धांजलि दी है। गौरा उत्तराखंड की वो शख्सियत है जिन्होंने पेड़ों से चिपककर उन्हें कटने से बचाया।

By Raksha PanthriEdited By: Raksha PanthriUpdated: Sat, 31 Mar 2018 05:08 PM (IST)
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देहरादून, [जेएनएन]: चिपको आंदोलन की जननी गौरा देवी को गूगल ने डूडल बनाकर श्रद्धांजलि दी है। साथ ही चिपको आंदोलन की 45वीं सालगिरह मनार्इ है। गूगल ने अपने डूडल में न सिर्फ गौरा देवी बल्कि उन सभी महिलाओं को सलाम किया है जिन्होंने अपनी परवाह किए बिना, जान हथेली पर रखकर अपने जंगलों की रक्षा की। 

जब भी बात होगी पर्यावरण संरक्षण की तो जुबां पर पहला नाम आएगा गौरा देवी का। क्योंकि गौरा देवी ही वो महिला हैं, जिन्होंने जंगलों को अपना माना और अपनी जान की परवाह किए बिना जंगलों को बचाने में लग गर्इ। 

बात जनवरी 1974 के आसपास की है। जब चमोली जिले के रैंणी गांव में चिपको आंदोलन की शुरुआत हुर्इ। चिपको आंदोलन एक ऐसा आंदोलन है जिसकी गूंज चारों दिशाओं में आग की तरह फैलने लगी। ये वो आंदोलन था जो गौरा देवी के नेतृत्व में यहां की महिलाओं ने जंगलों को बचान के लिए चलाया था। दरअसल, उनदिनों रैंणी गांव में पेड़ों के कटान के लिए छपान हुआ था। इसकी भनक किसी तरह से स्थानीय लोगों को लग गर्इ और उन्होंने इसका विरोध शुरू कर दिया।  

गौरा देवी ने इसको लेकर गांव की महिलाओं के साथ बातचीत की और तय किया कि किसी भी हालत में जंगल काटने नहीं दिए जाएंगे। लेकिन गौरा देवी की इस योजना की भनक ठेकेदारों को लग गर्इ और उन्होंने महिलाओं के खिलाफ षड़यंत्र रचना शुरू कर दिया। ठेकेदारों ने पेड़ कटानों के लिए वो दिन चुना जब गांव के सभी आदमी चमोली में सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा लेने गए हुए थे। उन्होंने सोचा कि अब गांव में सिर्फ महिलाएं ही हैं तो ये सही रहेगा पेड़ों के कटान के लिए। लेकिन महिलाओं ने भी ठान ली थी कि वो जंगलों का नहीं कटने देंगे। फिर क्या था गौरा देवी के साथ सभी महिलाएं जंग के मैदान में उतर गईं। 

26 मार्च का वो दिन रैंणी गांव की महिलाओं के लिए बहुत बड़ा था, क्योंकि उन्हें अकेले ही अपने जंगलों के लिए लड़ना था। लेकिन कहते हैं ना कि जिनके हौसले बुलंद होते हैं उन्हें डिगा पाना आसान नहीं होता है। ठेकेदारों को पेड़ों को काटने के लिए जंगल में आता देख गौरा देवी के साथ ही सभी महिलाएं एक साथ आ गर्इं। 

जंगल हमारा मायका है, इसे मत काटो

जंगल हमारा मायका है, इसे मत काटो। ये शब्द थे गौरा देवी के और उन सभी महिलाओं के जो इस कटान के विरोध में जंगल पहुंच चुकी थीं। उन्होंने पहले तो मजदूरों से विनती की और कहा कि वो पेड़ों को ना काटें। लेकिन ठेकेदार और उसके आदमियों ने एक ना सुनी और उन्हें धमकाने लगे। 

लेकिन महिलाएं भी डटी रहीं। उनकी इस निडरता को देख ठेकेदार और उसके आदमियों ने उनको बंदूक दिखाकर धमकाना चाहा तो गौरा देवी ने छाती तानकर कहा मारो गोली और काट लो हमारा मायका। उनके इस साहस को देखते हुए ठेकेदार और उसके आदमी सहम गए। 

वहीं गौरा देवी भी ये बात समझ गर्इ थी कि वो मजदूरों से उलझकर उनका मुकाबला नहीं कर सकती। तो वो पेड़ों से चिपक गईं और कहा कि अगर पेड़ काटने हैं तो उनके साथ हमें भी काट लो। अब ठेकेदार आग बबूला हो गया। उसने और उसके आदमियों ने गौरा देवी के मुंह पर थूक दिया। लेकिन उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया और इसी तरह डटी रहीं। 

आखिरकार गौरा देवी और उनकी साथी महिलाओं की हिम्मत के आगे ठेकेदार और उसके आदमी हार गए और उन्होंने वहां से निकलना ही ठीक समझा। पेड़ों को बचाने के लिए उनसे इसतरह से चिपकने वाले इस आंदोलन को चिपको आंदोलन का नाम दिया गया। इस आंदोलन ने सरकार के साथ-साथ वन प्रेमियों और वैज्ञानिकों का ध्यान भी अपनी ओर खींचा। साथ ही गौरा देवी के इस साहस को देखकर उन्हें रैंणी गांव की गौरा देवी से चिपको वुमेन बना दिया गया।आज उसी शख्सियत को श्रद्धांजलि देने के लिए गूगल ने डूडल बनाया है। जिसमें महिलाएं पेड़ों को घेरकर खड़ी हैं। 

गौरा देवी का परिचय

गौरा देवी वो शख्सियत हैं जिन्होंने अपनी ज़िंदगी की पीड़ा को भुलाकर लोगों की पीड़ा को जाना। उनके दुख दर्द को समझा। पहाड़ों के दुख दर्द को जाना। इनका जन्म 1925 को चमोली जिले के लाता मरछिया परिवार में हुआ। नारायण सिंह के घर जन्मी गौरा ने पांचवी कक्षा तक की शिक्षा भी ग्रहण की थी। उस समय लड़कियों की कम उम्र में ही शादी कर दी जाती थी। यही वजह थी कि 11 साल की कम उम्र में ही उनका विवाह कर दिया गया। उनका विवाह रैंणी गांव के मेहरबान सिंह से हुआ था। गौरा देवी की हंसती खेलती ज़िंदगी में उस वक्त तूफान आ गया जब उनके पति का देहांत हो गया और वो अपने पीछे गौरा देवी और ढ़ाई साल के बेटे चन्द्र सिंह को छोड़ गए। 22 साल की छोटी सी उम्र में ही पति का साथ छूट जाने से वो अकेली पड़ गईं। और फिर यहां से शुरू हुआ था गौरा देवी का संघर्ष पूर्ण जीवन।  

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