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स्कूलों की मनमानी के आगे सरकारें नतमस्तक, अभिभावक त्रस्त

पब्लिक स्कूलों की मनमानी चरम पर है। वह बेझिझक अभिभावकों की जेब पर डाका डाल रहे हैं और सरकार भी उनके आगे नतमस्तक है।

By Raksha PanthariEdited By: Updated: Mon, 01 Apr 2019 07:11 PM (IST)
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स्कूलों की मनमानी के आगे सरकारें नतमस्तक, अभिभावक त्रस्त
देहरादून, जेएनएन। नए शैक्षणिक सत्र की शुरुआत के साथ ही पब्लिक स्कूलों की मनमानी चरम पर है। वह बेझिझक अभिभावकों की जेब पर डाका डाल रहे हैं। ऊपर से विभाग की सुस्ती उनका हौसले बढ़ा रही है। पहले तो अधिकारी इन स्कूलों की दहलीज लांघने की हिम्मत नहीं करते, जब जनता का दबाव पड़ता है तो वह नोटिस देकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। सरकार या विभाग ने भी कभी दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ मनमानी करने वाले स्कूलों पर कार्रवाई नहीं की है, जबकि हाल में इस दिशा में शिक्षा मंत्री ने स्पष्ट नियम बनाने की पहल भी की थी। यह बात और है कि मामला सिर्फ बयानबाजी तक सिमटकर रह गया और धरातल पर तस्वीर अभी भी पहले जैसी ही है। एनसीईआरटी की किताबों से जुड़े आदेश का स्कूलों ने तोड़ ढूंढ लिया है। जबकि फीस एक्ट और नियामक आयोग की आस अभी भी अधूरी है। 

फीस बढ़ोत्तरी हो या कॉपी-किताब और यूनिफार्म के बहाने लूट, अभिभावक इनकी मनमानी से त्रस्त हैं। पर विभाग शिकायत का इंतजार कर रहा है। नैतिकता के आधार पर कोई भी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं। जब कार्रवाई करनी होती है तब अधिकारी लकीर पीटते रहते हैं। हद ये कि सब जानकर भी अनजान बने हैं। सबकुछ आंखों के सामने है, पर फिर भी आंख पर पंट्टी पड़ी है। तुर्रा यह कि अभिभावक या किसी अन्य माध्यम से शिकायत मिलने पर ही कार्रवाई की जाती है। अब कार्रवाई का भी हाल जान लीजिए। 

ऐसा एक उदाहरण नहीं जहां लगे कि किसी स्कूल के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई की गई। मानकों की अनदेखी पर एनओसी रद करने तक का प्रावधान है, पर विभाग के कदम नोटिस पर ही आकर ठिठक जाते हैं। विभागीय सूत्र भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि किसी निजी या मिशनरी स्कूल के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर भी बस खेल हुआ है। 

क्या हैं मानक 

-शिक्षकों की नियुक्ति में राज्य सरकार की ओर से निर्धारित योग्यता, अनुभव व उम्र सीमा आदि का पालन। 

-फीस वृद्धि के लिए अभिभावक फोरम, सरकारी प्रतिनिधियों के साथ सलाह, बीच सत्र में वृद्धि नहीं। 

-उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार अभिभावक व बच्चे का किसी भी रूप में उत्पीड़न नहीं। 

-स्कूल का ढाचा, खेल मैदान, कक्षाएं, शिक्षकों की संख्या, छात्र संख्या आदि मानकों का पालन।

-डोनेशन, कैपिटेशन या अन्य किसी भी मद में अभिभावकों से धन की माग नहीं की जा सकती। 

मानक दरकिनार 

-शिक्षकों की नियुक्ति व वेतन आदि में मनमानी। 

-मनमाफिक थोप देते हैं फीस वृद्धि। 

-स्कूल का ढांचा, खेल मैदान, कक्षाओं का आकार, शिक्षकों की संख्या भी मानक के अनुरूप नहीं। 

-डोनेशन, कैपिटेशन के साथ ही विकास शुल्क, वार्षिक शुल्क, मिसलेनियस फीस के नाम पर उगाही। 

यूं होता है खेल 

-कॉपी-किताब व यूनिफार्म निश्चित दुकान से खरीदने की बाध्यता। 

-किताबों में अनावश्यक रूप से निरंतर बदलाव। 

-री-एडमिशन के नाम पर हर साल प्रवेश शुल्क। 

-री-टेस्ट के नाम पर भी उगाही का खेल। 

-टीसी तक के लिए अभिभावकों को किया जाता है परेशान। तीन से चार माह की एडवास फीस जमा करने का दबाव। 

कॉपी-किताब, यूनिफॉर्म की अनिवार्यता 

एजुकेशनल हब देहरादून के स्कूलों का मोह ऐसा है कि अभिभावक यहां किसी भी कीमत पर अपने बच्चे को पढ़ाना चाहता है। मां-बाप की यह मजबूरी स्कूल भी जानते हैं। तभी तरह-तरह से उनकी जेब पर कैंची चलाते हैं। नए शैक्षणिक सत्र की शुरुआत होने वाली है और तभी स्कूल इन दिनों सुपर मार्केट में तब्दील हो गए हैं। बाजार ऐसा कि कॉपी-किताबों से लेकर यूनिफार्म तक सब उपलब्ध है। अभिभावक न तो किसी तरह का मोल भाव करने की स्थिति में हैं और न ही गुणवत्ता पर सवाल खड़े कर सकते हैं। कुछ स्कूलों ने स्कूल में ही काउंटर बना लिए हैं, तो अन्य तय डीलर से ही यूनिफार्म और स्टेशनरी खरीदने का दबाव बना रहे हैं। 

पीजी से भी महंगी केजी की पढ़ाई 

एक बच्चे को नर्सरी कराने से कहीं आसान चार बच्चों को डिग्री दिलाना है। सहज आपको भी यकीन नहीं आएगा, लेकिन यह है सोलह आने सच। नर्सरी के एक बच्चे की पढ़ाई का सालभर का खर्च 60 हजार से अधिक बैठ रहा है, जबकि केंद्रीय विश्वविद्यालय, राज्य सरकार के विश्वविद्यालयों व डीम्ड विश्वविद्यालयों में सामान्य विषय में स्नातकोत्तर डिग्री करने के लिए सालाना खर्च सात हजार रुपये से 15 हजार रुपये के बीच है। ऐसे में आप स्वयं ही सोचिए कि आम आदमी अपने बच्चे का भविष्य कैसे संवारेगा। 

री-एडमिशन के नाम पर वसूली 

हर साल मां-बाप पर कॉपी-किताबों और यूनिफार्म आदि का बोझ तो पड़ता ही है, लेकिन निजी स्कूल वसूली के अन्य विकल्प भी तलाशते रहते हैं। कई स्कूलों में बच्चे के दोबारा दाखिले के लिए भी अभिभावकों को बाध्य किया जाता है। कहीं हर साल दोबारा प्रवेश की व्यवस्था है, तो कहीं जूनियर से सीनियर विंग में जाने पर री-एडमिशन। प्रत्येक साल अभिभावकों को दाखिले का दबाव झेलना पड़ता है। 

एनसीईआरटी का फरमान निष्प्रभावी 

राज्य सरकार ने 23 अगस्त 2017 को आइसीएससी बोर्ड को छोड़कर सभी सरकारी और निजी स्कूलों में एनसीईआरटी की पुस्तकें अनिवार्य कर दी थी। पर अधिकतर स्कूल इसे लेकर आनाकानी करते रहे। वह इसके खिलाफ हाईकोर्ट तक चले गए। कोर्ट ने यह व्यवस्था दी थी कि स्कूल संचालक अपनी उन्हीं किताबों को लागू कर पाएंगे जिनका मूल्य परिषद की किताबों के मूल्य के बराबर हो। पर इस आदेश की आड़ में स्कूल ने प्राइवेट प्रकाशकों की कई वैकल्पिक पुस्तकें लागू कर दी हैं। जिस कारण अभिभावकों पर दोहरी मार पड़ रही है। इधर, प्रदेश में आइसीएससी स्कूलों की भी तादाद अच्छी खासी है। यह स्कूल अभी तक इस आदेश से मुक्त हैं। वह अभी भी किताबों को लेकर मनमानी पर उतारू हैं। 

फीस एक्ट का अता ना पता 

प्रदेश में फीस एक्ट से लेकर नियामक आयोग तक, तमाम बातें हुई, पर इस ओर हुआ कुछ भी नहीं है। फीस और ऐडमिशन प्रक्रिया के नियंत्रण के लिए प्रस्तावित कानून भी अब तक नहीं बना है। कहा गया था कि स्कूलों को उनकी सुविधाओं के अनुसार विभिन्न कैटेगरी में विभाजित किया जाएगा। जहां जैसी सुविधाएं होंगी, वहां उसी हिसाब से फीस लागू होगी। नियमों का उल्लंघन करने पर एक्ट में दंडात्मक प्रावधान होगा। स्कूल तीन साल तक शुल्क में बढ़ोत्तरी नहीं कर पाएंगे। पर इसे निजी स्कूलों का दबाव मानें या कुछ और एक्ट अभी तक लागू नहीं हो सका है। 

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