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Glacier Burst Threat: चमोली में तबाही की वजह बना हैंगिंग ग्लेशियर, केदारनाथ के पीछे चोटी पर भी हैं ऐसे ही ग्लेशियर

Kedarnath Glacier Burst Threat उत्तराखंड में तमाम ग्लेशियरों में इस तरह के हैंगिंग ग्लेशियर मौजूद हैं। प्राकृतिक घटनाओं व भौगोलिक परिस्थितियों के चलते ये ग्लेशियर बनते हैं। इस तरह के ग्लेशियरों के प्रति वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के पूर्व विज्ञानी हिमनद विशेषज्ञ डॉ. डीपी डोभाल ने आगाह किया है।

By Sunil NegiEdited By: Updated: Thu, 11 Feb 2021 01:52 PM (IST)
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चित्र में लाल निशान के पास हैंगिंग ग्लेशियर दिखाई दे रहे हैं।
सुमन सेमवाल, देहरादून। ऋषिगंगा कैचमेंट क्षेत्र से निकली तबाही की वजह रौंथी पर्वत के हैंगिंग ग्लेशियर को माना गया है। यह ग्लेशियर अचानक से टूटकर नीचे आ गिरा था। जिसके चलते उसके साथ बड़े बोल्डर व भारी मलबा भी खिसक गया था। उत्तराखंड में तमाम ग्लेशियरों में इस तरह के हैंगिंग ग्लेशियर मौजूद हैं। प्राकृतिक घटनाओं व भौगोलिक परिस्थितियों के चलते ये ग्लेशियर बनते हैं और कुछ समय बाद स्वयं टूट भी जाते हैं। इस तरह के ग्लेशियरों के प्रति वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के पूर्व विज्ञानी हिमनद विशेषज्ञ डॉ. डीपी डोभाल ने आगाह किया है।

बुधवार को ‘दैनिक जागरण’ से बातचीत में हिमनद विशेषज्ञ डॉ. डीपी डोभाल ने कहा कि केदारनाथ मंदिर के पीछे की चोटी पर भी हैंगिंग ग्लेशियर हैं। कई सालों से इन्हें देखा जा रहा है। वर्ष 2007 में जब वह चौराबाड़ी ग्लेशियर पर अध्ययन पर रहे थे, तब हैंगिंग ग्लेशियर की तरफ से एवलांच भी आया था। जहां भी यू-शेप की वैली होती हैं, वहां इन्हें बनने में मदद मिलती है। इसके साथ ही ढालदार पत्थरों पर भी हैंगिंग ग्लेशियर तेजी से बनने लगते हैं।

(फोटो: इसमें हैंगिंग ग्लेशियर से एवलांच आता हुआ दिखाई दे रहा है। )

उत्तराखंड में ग्लेशियर 3800 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित हैं और हैंगिंग ग्लेशियर करीब चार हजार मीटर की ऊंचाई पर बनने लगते हैं। इनकी लंबाई उसके आधार या सपोर्ट के कारण कितनी भी हो सकती है, जबकि मोटाई 20 से 60 मीटर तक हो जाती है। निचले आधार के बाद भी यह बाहर की तरफ बढ़ने लगते हैं। जब इनकी मोटाई बढ़ती है, या अधिक बर्फ इनके ऊपर जमा होने लगती है तो यह अधिक भार सहन नहीं कर पाते और टूट जाते हैं।

आबादी से दूर हैं अधिकतर हैंगिंग ग्लेशियर

अधिक ऊंचाई पर बनने के चलते हैंकिंग ग्लेशियर आबादी क्षेत्रों से कई किलोमीटर दूर होते हैं। सीधे तौर पर यह आबादी को नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं। मगर, किसी गदरे या नदी में गिरने के चलते यह कृत्रिम झील का निर्माण कर सकते हैं। ऋषिगंगा कैचमेंट क्षेत्र में भी यही स्थिति बनी। यदि ऐसा होता है तो यह बड़ा खतरा भी बन सकते हैं।

सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी की जरूरत महसूस हो रही

ऋषिगंगा व तपोवन क्षेत्र में आई जलप्रलय के बाद एक बार फिर ग्लेशियरों पर अध्ययन बढ़ाने की जरूरत महसूस होने लगी है। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. कालाचांद साईं भी कहते हैं कि हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता को देखते हुए ग्लेशियरों की सेहत को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। इसी बात को देखते हुए वर्ष 2003 में वाडिया में सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी प्रोजेक्ट शुरू किया गया था। इसके लिए 23 करोड़ रुपये भी दिए गए थे। इसके अलावा ग्लेशियरों पर शोध के लिए समर्पित एक अलग एजेंसी की स्थापना दून में करने की बात भी केंद्र सरकार ने की थी। हालांकि, कोरोनाकाल में अचानक इस प्रोजेक्ट को ही बंद कर दिया गया। वाडिया संस्थान के निदेशक डॉ. कालाचांद का कहना है कि ग्लेशियोलॉजी सेंटर की उम्मीद अभी भी बाकी है। संस्थान की ओर से इसके लिए प्रयास किए जा रहे हैं।

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