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Haridwar Kumbh 2021: हर किसी को कुंभ से अमृत छलकने का इंतजार, जानें- इससे जुड़ी हर एक खास बात

Haridwar Kumbh Mela 2021 वर्ष 1938 के बाद पहली बार 11 साल के अंतराल में आयोजित हो रहे कुंभ मेले के लिए कुंभनगर (हरिद्वार) सज चुका है। हालांकि सरकार की अधिसूचना के साथ कुंभ की विधिवत शुरुआत एक अप्रैल से होनी है।

By Raksha PanthriEdited By: Updated: Wed, 17 Mar 2021 12:01 PM (IST)
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हर किसी को कुंभ से अमृत छलकने का इंतजार। फाइल फोटो
दिनेश कुकरेती, देहरादून। Haridwar Kumbh Mela 2021 वर्ष 1938 के बाद पहली बार 11 साल के अंतराल में आयोजित हो रहे कुंभ मेले के लिए कुंभनगर (हरिद्वार) सज चुका है। हालांकि, सरकार की अधिसूचना के साथ कुंभ की विधिवत शुरुआत एक अप्रैल से होनी है। लेकिन, खगोल गणना के अनुसार कुंभ मकर संक्रांति पर्व से ही शुरू हो चुका है। कुंभ काल में इसी दिन पहली बार हरिद्वार में 'कुंभ स्नान योग' बनता है। यह अलग बात है कि कोरोना संक्रमण के चलते सरकार को कुंभ मेले की अवधि एक माह करनी पड़ी। बावजूद इसके महाशिवरात्रि पर्व पर 11 मार्च का स्नान कुंभ के आलोक में ही हुआ। पहले सरकार की ओर से भी महाशिवरात्रि स्नान को शाही स्नान घोषित किया गया था। बाद में इसे सिर्फ पर्व स्नान माना गया, लेकिन इसके लिए तैयारियां शाही स्नान जैसी ही की गईं। खास बात यह कि सभी सातों संन्यासी अखाड़ों के साधु-संत व नागा संन्यासियों ने भी शाही शान-ओ-शौकत के साथ ही गंगा में डुबकी लगाई।

'कुंभ' के साथ 'मेला' शब्द भी जुड़ा हुआ है। 'कुंभ' नाम अमृत (अमर) पात्र या कलश से लिया गया है, जबकि संस्कृत शब्द 'मेला' का अर्थ हुआ किसी एक स्थान पर एकजुट होना, मिलना या सभा करना अथवा विशेष रूप से सामुदायिक उत्सव का हिस्सा बनना। इस तरह कुंभ मेला का अर्थ हुआ अमृत के लिए मिलना। व्याकरणाचार्य स्वामी दिव्येश्वरानंद कहते हैं कि वर्तमान संदर्भ में मीठे एवं स्वच्छ जल को अमृत के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि जल ही जीवन का मूल तत्व है। पुराणों में उल्लेख है कि समुद्र मंथन से अमृत कुंभ प्रकट हुआ था। व्यापक फलक में देखें तो समाज, राष्ट्र एवं संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए मंथन (विचार-विमर्श) एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। इसके लिए नियमित अंतराल पर अनुकूल समय और स्थान विशेष की आवश्यकता होती है। देखा जाए तो यही कुंभ काल है। 

कुंभ कब और कैसे शुरू हुआ, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है। लेकिन, कुंभ मेले का इतिहास निर्विवाद रूप से काफी पुराना है। कुंभ मेले का पहला लिखित प्रमाण श्रीमद् भागवत महापुराण में मिलता है। इसके अलावा प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने कुंभ मेले का जिक्र किया है, जो सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल (629-645 ईस्वी) में भारत आया था। इसके अलावा दिलीप राय निर्देशित पहली बांग्ला फीचर फिल्म 'अमृता कुंभेर संधाने' ने भी कुंभ मेला का दस्तावेजीकरण किया था। यह फिल्म वर्ष 1982 में प्रदर्शित हुई। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार चार स्थानों पर कुंभ मेलों की शुरुआत आदि शंकराचार्य ने की थी। जबकि, भागवत पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत और रामायण में उल्लेख है कि कुंभ की शुरुआत तभी हो गई थी, जब समुद्र मंथन के बाद अमृत कुंभ के लिए देव-दानवों के बीच हुए संघर्ष के दौरान अमृत की बूंदें पृथ्वी समेत स्वर्गादि लोकों में बारह स्थानों पर छलक पड़ीं। 

खैर! यहां कुंभ की प्राचीनता जानने से ज्यादा अहमियत उसके सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरूप को जानने की है। कुंभ का अपना धार्मिक महत्व तो है ही, यह हमारी संस्कृति का भी महत्वपूर्ण प्रतीक है और देखा जाए तो संस्कृति ही समाज का निर्माण करती है। यह दुनिया का एकमात्र धार्मिक अनुष्ठान है, जो सैकड़ों संस्कृतियों का एक छत्र के नीचे मेल कराता है। मनुष्य को प्रकृति, पर्यावरण व जल की अहमियत समझाता है। धर्म, दर्शन, अध्यात्म और विज्ञान को एक कड़ी में पिरोने का काम करता है। इतना ही नहीं, कुंभ मेला कमाई का भी एक प्रमुख स्रोत है, जो अस्थायी रूप में हजारों व्यक्तियों को रोजगार देता है। इसीलिए कुंभ को यूनेस्को की प्रतिनिधि सूची 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत' में शामिल किया गया है।

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