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Haridwar Kumbh Mela 2021: कई पड़ाव पार कर वर्तमान स्वरूप में आया कुंभ, हुए खूनी संघर्ष; महामारियों ने भी छीनीं जिंदगियां

Haridwar Kumbh Mela 2021 कुंभ को वर्तमान स्वरूप में पहुंचने में सैकड़ों साल लगे। इस लंबे कालखंड में उन्हें तमाम तरह की अनुभूतियों से गुजरना पड़ा। कुंभकाल में हुए खूनी संघर्षों ही नहीं वर्ष 1844 1855 1866 1879 और 1891 की महामारियों ने भी अनगिनत जिंदगिंया छीनीं।

By Sunil NegiEdited By: Updated: Wed, 24 Mar 2021 06:05 AM (IST)
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कुंभ को वर्तमान स्वरूप में पहुंचने में सैकड़ों साल लगे। इस कालखंड में उन्हें कई अनुभूतियों से गुजरना पड़ा।
दिनेश कुकरेती, देहरादून। Haridwar Kumbh Mela 2021 कुंभ को वर्तमान स्वरूप में पहुंचने में सैकड़ों साल लगे। इस लंबे कालखंड में उन्हें तमाम तरह की अनुभूतियों से गुजरना पड़ा। कुंभकाल में हुए खूनी संघर्षों ही नहीं, वर्ष 1844, 1855, 1866, 1879 और 1891 की महामारियों ने भी अनगिनत जिंदगियां छीनीं। ऐसे भी दौर आए, जब जनमानस ने धारणा बना ली कि पुण्य प्राप्ति के ये अनुष्ठान शांतिपूर्वक संपन्न नहीं हो सकते। हालांकि, धीरे-धीरे हालात बदले, बुद्धि पर विवेक की जीत हुई और कुंभ मेले सचमुच पुण्य के पर्व बन गए। बावजूद इसके आज भी आमजन के मन से वह खौफ पूरी तरह नहीं निकल पाया है और तमाम किंतु-परंतु उसे विचलित किए रहते हैं। संभवत: इसी वजह से कुंभ मेलों के साथ असुरक्षा का रिश्ता आज भी कायम है।

इतिहास के पन्ने पलटें तो मालूम होता है कि भारत में मुस्लिम आक्रमण के बाद ब्रिटिश हुकूमत की स्थिति मजबूत होने तक कोई व्यापक, सशक्त व न्यायप्रिय राजसत्ता नहीं थी। ऐसे में हर कार्य जनसाधारण को अपनी शक्ति के हिसाब से ही करना पड़ता था। इसके लिए उसे कोई राजकीय सहायता प्राप्त नहीं होती थी। कमोबेश यही स्थिति कुंभ मेलों के दौरान स्नान को लेकर भी रहती थी। उस कालखंड में प्रत्येक समुदाय अपनी संगठनात्मक शक्ति के बूते कुंभ पर्व का स्नान पहले नंबर पर करने का जतन करता था। ऐसी स्थिति में अन्य समुदायों की ओर से अवरोध खड़ा किए जाने पर दोनों में संघर्ष होना लाजिमी था।

1621 ईस्वी में सम्राट जहांगीर के समय कुंभ स्नान को लेकर उदासीन और वैरागी साधुओं में भीषण संघर्ष हुआ। तब सम्राट स्वयं घटनास्थल पर उपस्थित थे, लेकिन शाही सैनिकों को उन्होंने लड़ाई में हस्तक्षेप करने की मनाही कर दी थी। मोहसिन फानी की पुस्तक 'दबिस्तान-अल-मजाहिब' में उल्लेख है कि 1050 ईस्वी में हरिद्वार कुंभ के दौरान नागा संन्यासियों ने बहुत से वैरागियों को मौत के घाट उतार दिया था। तब वैरागियों ने प्राण रक्षा के लिए तिलक, तुलसी माला आदि का परित्याग कर कनकटे जोगियों का छद्म रूप धारण कर लिया था। अंग्रेज लेखक कैप्टन टॉम्स हार्डविक ने भी अपनी पुस्तक में 1796 ईस्वी के हरिद्वार कुंभ स्नान पर 12 से 14 हजार सिख सैनिकों के हाथों पांच हजार साधुओं के मारे जाने का उल्लेख किया है। इसी तरह नागा व वैरागी संप्रदायों के बीच झगड़ा होने से 1807 ईस्वी के हरिद्वार कुंभ में नागा संन्यासियों ने लगभग 18 हजार वैरागियों को मार डाला था। 

उज्जैन कुंभ में भी एक बार वैरागी साधुओं ने बलपूर्वक प्रथम स्नान करने का प्रयत्न किया, जिसका नतीजा यह रहा कि नागा संन्यासियों के हाथों बहुत से वैरागी साधु मारे गए। तब सामुदायिक शक्ति की दृष्टि से नागा संन्यासियों का प्रथम स्नान था। दूसरे नंबर पर वैरागी आते थे। इसके बाद अन्य का नंबर था। ब्रिटिश सरकार ने जब लगा कि कि कुंभ पर्वों पर संघर्ष, परंपरा का रूप धारण करते जा रहे हैं, तो उसने पीढ़ि‍यों पूर्व से प्रचलित पंरपराओं से संबंधित प्रमाण एकत्रित करने शुरू किए। उन प्रमाणों से जो तथ्य स्पष्ट हुए, उन्हीं के आधार पर कुछ नियम-कायदे तय किए गए। फिर कुंभ के स्नान पर्वों पर इन नियमों का कठोरता से पालन भी कराया जाने लगा। कालांतर में यही नियम-कायदे स्वतंत्र भारत की सरकारों के लिए भी नजीर बन गए।

ये थे ब्रिटिश सरकार के नियम 

  • नागा संन्यासियों के अखाड़े सर्वप्रथम स्नान करेंगे
  • वैरागी साधुओं के अखाड़े दूसरे नंबर पर स्नान करेंगे 
  • उदासीन अखाड़ों का स्नान क्रम तीसरा रहेगा
  • निर्मल संप्रदाय के साधु सबसे अंत में स्नान करेंगे
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 महामारी के बीच संपन्न हुए थे पांच कुंभ मेले

हरिद्वार में वर्ष 1844, 1855, 1866, 1879 और 1891 के कुंभ मेले महामारी के बीच संपन्न कराए गए थे। वर्ष 1844 में हुए कुंभ के दौरान तो ब्रिटिश सरकार ने बाहरी लोगों के हरिद्वार आने पर पूरी तरह रोक लगा दी थी। जबकि, 155 साल पहले वर्ष 1866 में हुए कुंभ के दौरान पहली बार शारीरिक दूरी का पालन कराया गया था। 

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