उत्तराखंड में लचर स्वास्थ्य सेवा, मूर्छित सिस्टम और सरेराह दम तोड़ती जिंदगी
18 साल का उत्तराखंड पहाड़ी प्रदेश एकमात्र राज्य है, जिसका सेहत के मामले में प्रदर्शन बेहतर होने की बजाए बदतर हुआ है।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Mon, 31 Dec 2018 12:51 PM (IST)
देहरादून, जेएनएन। किसी भी प्रदेश की तरक्की का ग्राफ इस बात पर निर्भर करता है जब कि उसके लोग कितने सेहतमंद है। जनता स्वस्थ रहे, इसके लिए चिकित्सा सुविधाएं दुरुस्त होनी चाहिए, लेकिन उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति निराशाजनक है। बीते साल में छोटे-छोटे कई प्रयास किए गए पर अब भी कई चुनौतियां मुंह बाहे खड़ी हैं। स्थिति यह कि दूरस्थ क्षेत्रों में स्वास्थ सेवाओं की पहुंच, चिकित्सकों की संख्या में बढ़ोत्तरी और संसाधन विकसित करने के सरकारी दावों के बीच जच्चा-बच्चा सड़क पर दम तोड़ देते हैं। सामान्य बीमारी तक के लिए व्यक्ति प्राइवेट अस्पताल का रुख करने को मजबूर है। उस पर नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट आइना दिखाने वाली है। 18 साल का यह पहाड़ी प्रदेश एकमात्र राज्य है, सेहत के मामले में जिसका प्रदर्शन बेहतर होने की बजाए बदतर हुआ है।
प्रदेश में लचर स्वास्थ्य सेवा के कारण नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में बढ़ोतरी हुई है। आए दिन अस्पतालों से लेकर घरों में सही उपचार न मिलने से कई नवजात जन्म लेने के बाद या फिर कोख में ही काल के ग्रास में समा रहे हैं। सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) की रिपोर्ट बताती है कि उत्तराखंड में शिशु मृत्यु दर 38 प्रति हजार है। बच्चों की ही बात क्यों करें, सुरक्षित मातृत्व के तमाम दावों के बीच यहां जच्चा भी सुरक्षित नहीं हैं। हाल ही की कई घटनाओं ने सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर बड़ा प्रश्न चिह्न लगा दिया है। पहाड़ तो दूर, दून की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। राजधानी के अस्पताल में ही फर्श पर जच्चा-बच्चा दम तोड़ देते हैं लेकिन सरकार और उसके अफसर दोनो ही नहीं पसीजते। एक के बाद एक हादसे होते हैं, दुर्घटनाएं होती है, अफसर जांच बैठाते हैं, पर हासिल कुछ नहीं होता। सरकारें अभी तक यह पता नहीं लगा पाई हैं कि राज्य की सेहत के लिए जरूरी है क्या?
नीति आयोग ने अभी कुछ माह पहले 21 राज्यों का स्वास्थ्य सूचकांक जारी किया, जिसमें एकमात्र उत्तराखंड ऐसा है जिसका प्रदर्शन बेहतर होने के बजाय और बदतर होता जा रहा है। उत्तराखंड इस सूचकांक में 15वें स्थान पर है। उत्तर प्रदेश तक ने अपनी स्थिति में सुधार किया है। हमसे भी अधिक विषम भौगोलिक परिस्थतियों वाला हिमाचल प्रदेश तो स्वास्थ्य सेवाओं में उत्तराखंड से बहुत ऊपर पांचवे स्थान पर है।
पीपीपी मोड का नहीं छूट रहा मोह
पीपीपी मोड की तरफ सरकार कुछ ज्यादा ही आकर्षित दिख रही है। स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी की दुहाई देकर एक के बाद एक प्रमुख अस्पताल निजी हाथों में दिए जा रहे हैं। जबकि इससे पहले यह मॉडल बुरी तरह फेल साबित हुआ है। ताज्जुब इस बात का भी है कि जिन अस्पतालों में संसाधनों के साथ चिकत्सक भी उपलब्ध हैं, उन्हें भी निजी हाथों में दिया जा रहा है। डोईवाला और टिहरी का अस्पताल इसकी एक बानगी है। रामनगर, टिहरी, पौड़ी और अल्मोड़ा के अस्पताल भी इसी कतार में हैं। कई सामुदायिक और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर निगाह है। जबकि पीपीपी का यह फार्मूला वहां लगाया जाना था, जहां डॉक्टर और अन्य जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। उस पर स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण कितना मुफीद होगा यह कहना भी मुश्किल है। डर इस बात का भी है कि पीपीपी मॉडल के अस्पताल कहीं रेफरल सेंटर बनकर न रह जाएं। बता दें कि सरकारी अस्पतालों की बदहाली की कीमत पर ही निजी अस्पतालों की दुकानें फलफूल रही हैं। उत्तराखंड में छोटे-बड़े प्राइवेट अस्पतालों की संख्या 600 से ऊपर पहुंच चुकी है। सैकड़ों करोड़ रुपये का कारोबार कर रहे ये अस्पताल आम लोगों की मजबूरी बन गए हैं।
अधिकार की जंग में सेवाएं बदहाल
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) और महानिदेशालय के अधिकारियों के बीच अधिकार क्षेत्र को लेकर विवाद है। दरअसल एनएचएम की स्थापना स्वास्थ्य सेवाओं को तकनीकि एवं वित्तीय सहयोग देने के लिए की थी। पर एनएचएम को अलग विभाग के रूप में चलाया जा रहा है। इसकी शुरुआत एनएचएम के पूर्व एमडी चंद्रेश यादव के समय से हुई। उन्होंने एनएचएम के तहत चल रहे सभी कार्यक्रमों में प्रभारी अधिकारियों की नियुक्ति कर दी। जिससे एक ही विभाग में एक ही कार्यक्रम में दो-दो अधिकारी हो गए। आज स्थिति यह है कि स्वास्थ्य महानिदेशालय में एनएचएम के रूप में एक सामांतर व्यवस्था चल रही है। सरकार की पहल
आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।- अटल आयुष्मान योजना: प्रदेश के 17.5 लाख परिवारों के लिए अटल आयुष्मान योजना। इसके तहत केंद्र सरकार की आयुष्मान भारत योजना की तर्ज पर पांच लाख रुपये सालाना का स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराया जाएगा। आयुष्मान भारत और अटल आयुष्मान योजना के तहत कुल 22 लाख परिवारों को कैंसर, हृदयरोग समेत 1349 बीमारियों के इलाज की सुविधा मिलेगी।
- हेल्थ डैशबोर्ड: डैशबोर्ड के तहत मरीज का ई-रजिस्ट्रेशन, ई-ब्लड बैंक, ई-मेडिसिन, ई-हेल्थ सेंटर व टेलीमेडिसिन संबंधी सुविधाओं की जानकारी उपलब्ध होगी।
- ई-हॉस्पिटल: ई-हॉस्पिटल योजना के तहत मरीज ऑनलाइन पंजीकरण प्रणाली (ओआरएस) पोर्टल के माध्यम से डॉक्टर से समय लेने अथवा विभिन्न जांचों की रिपोर्ट घर बैठे ही प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए वह घर से ही पोर्टल पर जाकर अपने आधार कार्ड नंबर से रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं।
- ई-रक्तकोष: प्रदेश के समस्त निजी व सरकारी ब्लड बैंक ई-रक्तकोष पोर्टल से जुड़े। इससे कोई भी व्यक्ति घर बैठे अपने मोबाइल या कम्प्यूटर से ब्लड बैंक में ब्लड की उपलब्धता देख सकता है।
- टेली मेडिसन: अस्पतालों में ई-सेंटर स्थापित किए जाने हैं। जांच की रिपोर्ट इंटरनेट के जरिए अपलोड की जाती है। इस रिपोर्ट का विशेषज्ञ अध्ययन करते हैं और इलाज की सलाह देते हैं। इसके लिए राज्य सरकार ने आइटी कंपनी हेवलेट पेकार्ड के साथ समझौता किया है।
- टेली रेडियोलॉजी: डॉक्टरों की कमी से निपटने के लिए प्रमुख अस्पतालों में टेली रेडियोलॉजी सेवा की पहल की गई। इसके जरिए एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड व एमआरआइ जैसे परीक्षणों की रिपोर्ट इंटरनेट से अनुबंधित रेडियोलॉजिस्ट को भेजी जाती है। उक्त रेडियोलॉजिस्ट रिपोर्ट के परीक्षण के बाद उपचार के बाबत परामर्श देता है।
- जिला अस्पतालों में आइसीयू: प्रदेश के सभी जिला अस्पतालों में आइसीयू यूनिट स्थापित करने की योजना। इसके तहत पिथौरागढ़ में हंस फाउंडेशन की मदद से आइसीयू स्थापित कर शुरुआत की जा चुकी है।
- महिला-पुरुष अस्पतालों का एकीकरण: प्रदेश में अलग-अलग संचालित हो रहे महिला एवं पुरुष अस्पतालों के एकीकरण की योजना है। ताकि संसाधानों का बेहतर ढंग से इस्तेमाल किया जाए।
- नए डॉक्टरों की तैनाती: प्रदेश में सबसे बड़ी चुनौती चिकित्सकों की कमी दूर करने की है। इसे लेकर राज्य सरकार के प्रयास कुछ हद तक सफल भी हुए हैं। तकरीबन 500 नए डॉक्टरों ने ज्वाइन किया और इतने ही और डॉक्टर नए साल में मिलने की उम्मीद है।