रूपकुंड का है रोचक इतिहास, झील में मछली की जगह मिलते हैं नरकंकाल
चमोली जिले के सीमांत देवाल विकासखंड में समुद्रतल से 16499 फीट की ऊंचाई पर स्थित है मनोरम रूपकुंड झील। इसका इतिहास रोचक और रोमांचक है। इस झील में नरकंकाल मिलते हैं।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Mon, 13 May 2019 08:50 AM (IST)
देहरादून, दिनेश कुकरेती। चमोली जिले के सीमांत देवाल विकासखंड में समुद्रतल से 16499 फीट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध नंदादेवी राजजात मार्ग पर नंदाघुंघटी और त्रिशूली जैसे विशाल हिम शिखरों की छांव में स्थित है मनोरम रूपकुंड झील। त्रिशूली शिखर (24000 फीट) की गोद में च्यूंरागली दर्रे के नीचे 12 मीटर लंबी, दस मीटर चौड़ी और दो मीटर से अधिक गहरी हरे-नीले रंग की अंडाकार आकृति वाली यह झील साल में करीब छह माह बर्फ से ढकी रहती है। इसी झील से रूपगंगा की धारा भी फूटती है। झील की सबसे बड़ी खासियत है इसके चारों ओर पाए जाने वाले रहस्यमय प्राचीन नरकंकाल, अस्थियां, विभिन्न उपकरण, कपड़े, गहने, बर्तन, चप्पल आदि। इसलिए इसे रहस्यमयी झील का नाम दिया गया है।
कोई कहता है कि ये कंकाल किसी राजा की सेना के जवानों के हैं, तो कोई इनके तार सिकंदर के दौर से जोड़ता है। लेकिन, सच अभी भी भविष्य के आगोश में है। वैज्ञानिकों के नए शोध में बताया गया है कि ये नरकंकाल सिकंदर के जमाने से 250 साल पुराने हैं। क्योंकि, सिकंदर से पूर्व भी ग्रीक देशों के लोग भी यहां आए थे। इस शोध के लिए नरकंकालों के सौ सैंपल की ऑटोसोमल डीएनए, माइटोकॉन्डियल और वाई क्रोमोसोम्स डीएनए जांच कराई गई। जिसमें पता चला कि ये ग्रीक लोगों के कंकाल हैं। साथ ही कुछ कंकाल स्थानीय लोगों के भी हैं। इस नतीजे तक पहुंचने के लिए शोध टीम ने आसपास के इलाकों के करीब 800 लोगों की भी डीएनए जांच की। इसी सेइन नरकंकालों के ग्रीक और स्थानीय लोगों के होने की पुष्टि हुईं। हालांकि, इससे पूर्व वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला था कि नरकंकाल सिकंदर की सेना की टुकड़ी के हो सकते हैं।
रहस्य से खुल रहे कई रहस्य
बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों के अनुसार सैंपल की डीएनए जांच से ग्रीक डीएनए का मिलान हो रहा है, लेकिन इसमें अभी और शोध की जरूरत है। इसके अलावा एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया जल्द ही एक प्रोजक्ट शुरू करने जा रहा है। देखना है कि आगे इन नरकंकालों को लेकर और क्या-क्या बातें सामने आती हैं।
पौराणिक मान्यता
चमोली जिले में हर 12वें साल नौटी गांव से नंदा देवी राजजात का आयोजन होता है। इस यात्रा से संबंधित कथा के अनुसार अनुपम सुंदरी हिमालय (हिमवंत) पुत्री देवी नंदा (पार्वती) जब शिव के साथ रोती-बिलखती कैलास जा रही थीं, तब मार्ग में एक स्थान पर उन्हें प्यास लगी। नंदा के सूखे होंठ देख शिवजी ने चारों ओर नजरें दौड़ाईं, लेकिन कहीं भी पानी नहीं था। सो, उन्होंने अपना त्रिशूल धरती पर मारा, जिससे वहां पानी का फव्वारा फूट पड़ा। नंदा जब प्यास बुझा रही थीं, तब उन्हें पानी में एक रूपवती स्त्री का प्रतिबिंब नजर आया, जो शिव के साथ एकाकार था। नंदा को चौंकते देख शिव उनके अंतर्मन के द्वंद्व को समझ गए और बोले, यह तुम्हारा ही रूप है। तब से ही यह कुंड रूपकुंड, शिव अर्धनारीश्वर और यहां के पर्वत त्रिशूल व नंदाघुंघटी कहलाए। जबकि, यहां से निकलने वाली जलधारा का नाम नंदाकिनी पड़ा।
स्वामी प्रणवानंद ने जोड़े कन्नौज से ताररूपकुंड के वैज्ञानिक पहलू को प्रकाश में लाने का श्रेय हिमालय अभियान के विशेषज्ञ एवं अन्वेषक साधक स्वामी प्रणवानंद को जाता है। प्रणवानंद ने वर्ष 1956 में लगभग ढाई माह और वर्ष 1957 व 58 में दो-दो माह रूपकुंड में शिविर लगाकर नरकंकाल, अस्थि, बालों की चुटिया, चमड़े के चप्पल व बटुआ, चूड़ियां, लकड़ी व मिट्टी के बर्तन, शंख के टुकड़े, आभूषणों के दाने आदि वस्तुएं एकत्रित कीं। इन्हें वैज्ञानिक परीक्षण के लिए बाहर भेजा गया और वर्ष 1957 से 1961 तक इन पर शोध परीक्षण होते रहे। शोध के आधार पर ये नरकंकाल, अस्थियां आदि 650 से 750 वर्ष पुराने बताए गए। प्रणवानंद ने अपने अध्ययन के निष्कर्ष में रूपकुंड से प्राप्त अस्थियां आदि वस्तुओं को कन्नौज के राजा यशोधवल के यात्रा दल का माना है। जिसमें राजपरिवार के सदस्यों के अलावा अनेक दास-दासियां, कर्मचारी, कारोबारी आदि शामिल थे।
शोध कार्य में जुटे हैं देश-दुनिया के वैज्ञानिकरूपकुंड में नरकंकाल की खोज सबसे पहले वर्ष 1942 में नंदा देवी रिजर्व के गेम रेंजर हरिकृष्ण मधवाल ने की थी। मधवाल दुर्लभ पुष्पों की खोज में यहां आए थे। इसी दौरान अनजाने में वह झील के भीतर किसी चीज से टकरा गए। देखा तो वह एक कंकाल था। झील के आसपास और तलहटी में भी नरकंकालों का ढेर मिला। यह देख रेंजर मधवाल के साथियों को लगा मानो वे किसी दूसरे ही लोक में आ गए हैं। उनके साथ चल रहे मजदूर तो इस दृश्य को देखते ही भाग खड़े हुए। इसके बाद शुरू हुआ वैज्ञानिक अध्ययन का दौर। 1950 में कुछ अमेरिकी वैज्ञानिक नरकंकाल अपने साथ ले गए। अब तक कई जिज्ञासु-अन्वेषक दल भी इस रहस्यमय क्षेत्र की ऐतिहासिक यात्रा कर चुके हैं। भूगर्भ वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के एक दल ने भी यहां पहुंचकर अन्वेषण व परीक्षण किया।
उत्तर प्रदेश वन विभाग के एक अधिकारी ने सितंबर 1955 में रूपकुंड क्षेत्र का भ्रमण किया और कुछ नरकंकाल, अस्थियां, चप्पल आदि वस्तुएं एकत्रित कर उन्हें परीक्षण के लिए प्रसिद्ध मानव शास्त्री एवं लखनऊ विश्वविद्यालय केमानव शास्त्र विभाग के डायरेक्टर जनरल डॉ. डीएन मजूमदार को सौंप दिया। बाद में डॉ. मजूमदार स्वयं भी यहां से अस्थियां आदि सामग्री एकत्रित कर अपने साथ ले गए। उन्होंने इस सामग्री को 400 साल से कहीं अधिक पुरानी माना और बताया कि ये अस्थि अवशेष किसी तीर्थ यात्री दल के हैं। डॉ. मजूमदार ने 1957 में यहां मिले मानव हड्डियों के नमूने अमेरिकी मानव शरीर विशेषज्ञ डॉ. गिफन को भेजे। जिन्होंने रेडियो कॉर्बन विधि से परीक्षण कर इन अस्थियों को 400 से 600 साल पुरानी बताया।
ब्रिटिश व अमेरिका के वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि अवशेषों में तिब्बती लोगों के ऊन से बने बूट, लकड़ी के बर्तनों के टुकड़े, घोड़े की साबूत रालों पर सूखा चमड़ा, रिंगाल की टूटी छंतोलियां और चटाइयों के टुकड़े शामिल हैं। याक के अवशेष भी यहां मिले, जिनकी पीठ पर तिब्बती सामान लादकर यात्रा करते हैं। अवशेषों में खास वस्तु बड़े-बड़े दानों की हमेल है, जिसे लामा स्त्रियां पहनती थीं। वर्ष 2004 में भारतीय और यूरोपीय वैज्ञानिकों के एक दल ने भी संयुक्त रूप से झील का रहस्य खोलने का प्रयास किया। इसी साल नेशनल ज्योग्राफिक के शोधार्थी भी 30 से ज्यादा नरकंकालों के नमूने इंग्लैंड ले गए। बावजूद इसके रहस्य अब भी बरकरार है।यह भी पढ़ें: अब सिस्मिक वेव बताएगी रेलवे ट्रैक पर है कौन सा वन्यजीव, ऐसे बचेगी उनकी जानयह भी पढ़ें: मानव की तरह छोटे परिवार की तरफ ढल रहे हैं हाथी, पढ़िए पूरी खबरलोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप
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