उत्तराखंड में बदलनी होगी वन पंचायतों की तस्वीर, देना होगा कार्यदायी संस्था का दर्जा
वन पंचायतों के गठन का क्रम बदस्तूर जारी है। अब तक उत्तराखंड के 11 जिलों में 12166 वन पंचायतें अस्तित्व में आ चुकी हैं। अब बदली परिस्थितियों में इन्हें सशक्त बनाना जरूरी है।
By Raksha PanthariEdited By: Updated: Sun, 16 Aug 2020 02:56 PM (IST)
देहरादून, केदार दत्त। जंगल हैं तो सबकुछ ठीक, अन्यथा...। विषम भूगोल और 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड का ग्रामीण समाज यह बात भलीभांति जानता है। तभी तो वनों का संरक्षण यहां की परंपरा का हिस्सा है। वनों के प्रति इस अपनत्व का ही परिणाम है 88 साल पहले वनों के संरक्षण को शुरू हुई वन पंचायतों के रूप में अनूठी पहल। गांव के नजदीकी वनों को वन पंचायतें खुद पनपाती और बचाती हैं। वर्ष 1932 से वन पंचायतों के गठन का क्रम बदस्तूर जारी है। अब तक उत्तराखंड के 11 जिलों में 12166 वन पंचायतें अस्तित्व में आ चुकी हैं, जिनके पास सात हजार वर्ग किमी वन क्षेत्र का जिम्मा है। अब बदली परिस्थितियों में इन्हें सशक्त बनाना जरूरी है। हालांकि, इसकी कसरत चल रही, मगर इसमें तेजी की दरकार है। वन पंचायतों को कार्यदायी संस्था का दर्जा देना होगा। इससे जंगल तो पनपेंगे ही, पर्यावरण संरक्षण में आमजन की भागीदारी बढ़ेगी।
सामुदायिक रिजर्व और रोजगार की संभावनाएंकॉर्बेट और राजाजी टाइगर रिजर्व के साथ ही छह राष्ट्रीय उद्यान, सात अभयारण्य और चार कंजर्वेशन रिजर्व वाला उत्तराखंड अब सामुदायिक रिजर्व की दिशा में आगे बढ़ रहा है। समुदाय की भागीदारी से बनने वाले रिजर्व के पीछे मंशा रोजगार के अवसर सृजित करने की तो है ही, पर्यावरण संरक्षण में जनसामान्य की भागीदारी बढ़ाना भी है। इस कड़ी में प्रवासी परिंदों को आधार बनाते हुए राज्य के पहले माइग्रेटरी बर्ड कम्युनिटी रिजर्व को सरकार हरी झंडी दे चुकी है। ऊधमसिंहनगर जिले के रुद्रपुर में प्रस्तावित इस सामुदायिक रिजर्व के लिए वहां की जिला पंचायत ने रुचि दिखाई है। रिजर्व के आकार लेने पर यह पक्षी पर्यटन के नए केंद्र के रूप में उभरेगा। रिजर्व में तैयार होने वाले जलाशय में नौकायन समेत अन्य रोजगारपरक गतिविधियां प्रांरभ हो सकेंगी। सरकार को चाहिए कि वह इसे मॉडल के तौर पर विकसित करे, ताकि अन्य क्षेत्रों में भी ऐसी पहल हो सके।
पर्यावरण संरक्षण से जुड़ेगी भावी पीढ़ीदुनियाभर में पर्यावरण की बिगड़ती सेहत चिंता का सबब बनी है। वनों का अंधाधुंध कटान, सिमटती हरियाली, प्रदूषित होती नदियां, हवा ऐसी कि सांस लेना दूभर, ऐसी तमाम दिक्कतें हैं जो पर्यावरण संतुलन बिगड़ने से बढ़ रही हैं। ऐसे में आवश्यक है कि भावी पीढ़ी को बाल्यकाल से ही पर्यावरण संरक्षण से जोड़ा जाए। केंद्र सरकार की 'स्कूल नर्सरी योजना' के पीछे भी अवधारणा यही है। इसके तहत प्रतिवर्ष देश में 1000 स्कूलों में नर्सरी स्थापना के साथ ही उन्हें ईको सिस्टम को समझने को प्रेरित किया जाएगा। बच्चों को बीज बोने, पौधे लगाने व इनकी देखभाल के लिए प्रोत्साहित किया जाना है। यही नहीं, उन्हें विभिन्न वृक्ष प्रजातियों, वनस्पतियों के बारे में जानकारी दी जाएगी। उत्तराखंड में भी इस योजना के तहत विद्यालयों का चयन होना है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भावी पीढ़ी को पर्यावरण संरक्षण का पाठ पढ़ाने की मुहिम को तेजी से धरातल पर उतारा जाएगा।
यह भी पढ़ें: मियावाकी पद्धति से बदलेगी उत्तराखंड के जंगलों की तस्वीर, जानिए इस पद्धति के बारे मेंखाद्य शृंखला पर भी फोकस जरूरीउत्तराखंड के जंगलों में वन्यजीवों का कुनबा खूब फल-फूल रहा है। खासकर, बाघ और हाथियों के मामले में राज्य निरंतर नई ऊंचाइयां छू रहा है। निश्चित रूप से यह सुकून देने वाली बात है। अलबत्ता, तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। यह देखा जाना आवश्यक है कि जंगलों में वन्यजीवों की बढ़ी तादाद के मद्देनजर उनके लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन, पानी का इंतजाम है अथवा नहीं। असल में, वन्यजीवों के जंगल की देहरी पार करने और मनुष्य से निरंतर हो रहे टकराव से इन आशंकाओं को बल मिल रहा है। लिहाजा, जंगल में खाद्य शृंखला सशक्त हो, इसके लिए प्रभावी पहल तो करनी ही होगी। इस दृष्टिकोण से कॉर्बेट और राजाजी टाइगर रिजर्व में पसरी लैंटाना की झाड़ियों को हटाकर इनकी जगह घास मैदान और जलकुंड विकसित करने की मुहिम बेहतर कही जा सकती है। खाद्य शृंखला की मजबूती को अन्य क्षेत्रों में भी ऐसी पहल की दरकार है।
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