स्वार्गारोहणी के लिए जहां-जहां से पांडव गुजरे, वहां होते पांडव नृत्य
उत्तराखंड में पांडव पूजन की विशेष परंपरा है। मान्यता है कि स्वर्गारोहणी के लिए पांडव जहां-जहां से गुजरे, उन स्थानों पर विशेष रूप से पांडव लीला का आयोजन किया जाता है।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Thu, 02 Nov 2017 09:10 PM (IST)
देहरादून, [जेएनएन]: उत्तराखंड को पांडवों की धरती भी कहा जाता है। मान्यता है कि पांडव यहीं से स्वार्गारोहणी के लिए गए थे। इसी कारण उत्तराखंड में पांडव पूजन की विशेष परंपरा है। बताया जाता है कि स्वर्ग जाते समय पांडव अलकनंदा व मंदाकिनी नदी किनारे से होकर स्वर्गारोहणी तक गए। जहां-जहां से पांडव गुजरे, उन स्थानों पर विशेष रूप से पांडव लीला आयोजित होती है। प्रत्येक वर्ष नवंबर से लेकर फरवरी तक केदारघाटी में पांडव नृत्य का आयोजन होता है। खरीफ की फसल कटने के बाद एकादशी व इसके बाद से इसके आयोजन की पौराणिक परंपरा है।
पांडव नृत्यउत्तराखंड में केदारनाथ से लेकर हर मंदिर से पांडवों से जुड़ी कथाएं प्रचलित हैं। यहां के स्थानीय निवासी पांडवों की देवताओं के रूप में पूजा करते हैं। पांडव नृत्यों के आयोजन में पांडव आवेश में परम्परागत वाद्य यंत्रों की थाप और धुनों पर नाचते हैं। पांडव नृत्य में युद्ध की सदियों पुरानी विधाओं जैसे चक्रव्यू, कमल व्यू, गरुड़ व्यू, मकर व्यू आदि का भी आयोजन होता है। रात्रि में पांडव लीला के आयोजन में महाभारत की कथाओं का मंचन भी होता है। पांडव नृत्यों का आयोजन 21 से लेकर 45 दिन तक का होता है।
अस्त्र-शस्त्रों के साथ करते हैं पांडव नृत्य रुद्रप्रयाग जिले के ग्राम सभा दरमोला में प्रत्येक वर्ष पांडव नृत्य का आयोजन एकादशी पर्व पर होता है। पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों में बाणों की पूजा की परंपरा मुख्य है। ग्रामीणों के अनुसार स्वर्ग जाने से पहले भगवान कृष्ण के आदेश पर पांडव अपने अस्त्र-शस्त्र पहाड़ में छोड़कर मोक्ष के लिए स्वर्गारोहणी की ओर चले गए थे। जिन स्थानों पर यह अस्त्र छोड़ गए थे, उन स्थानों पर विशेष तौर से पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है और इन्हीं अस्त्र-शस्त्रों के साथ पांडव नृत्य करते हैं।
वहीं अन्य स्थानों पर पंचाग की गणना के बाद ही शुभ दिन निश्चित किया जाता है। केदारघाटी में पाण्डव नृत्य अधिकांश गांवों में आयोजित किए जाते हैं, लेकिन अलकनंदा व मंदाकनी नदी के किनारे वाले क्षेत्रों में पांडव नृत्य अस्त्र-शस्त्रों, जबकि पौड़ी जनपद के कई क्षेत्रों में मंडाण के साथ यह नृत्य भव्य रूप से आयोजित होता है। नृत्य के दौरान पांडवों के जन्म से लेकर मोक्ष तक का सजीव चित्रण किया जाता है।
पांडवों ने उत्तराखंड के जंगलों में ही काटी थी सजाउत्तरकाशी के मुखबा निवासी इतिहासकार उमा रमण सेमवाल बताते हैं कि शास्त्रों से यह ज्ञात होता है की जब पांडवों को वनवास की सजा दी गई, उस वक्त उन्होंने अपनी यह सजा उत्तराखंड के जंगलों में ही काटी थी और उत्तराखंड के जौनसार इलाके के राजा विराट ने उन्हें अपने इलाके में शरण दी थी। इस कारण जौनसार के लोग आज भी पांडवों की उपासना करते है। यह भी मान्यता है कि हिंदुओं के प्रमुख तीर्थ स्थल बद्रीनाथ, केदारनाथ, बुढ़ाकेदार व पंच केदार के अंश तुंगनाथ, मध्यमेश्वर, रूद्रनाथ व कल्पेश्वर जैसे मंदिरो का निर्माण भी पांडवों ने ही किया है।
पांडव नृत्य के दौरान होता चक्रव्यूह का आयोजनवास्तव में पांडव नृत्य में औसतन अठारह प्रकार के तालों पर नृत्य होता है, जो लोक विधान होते हुए भी, अनूठी शास्त्रीयता लिए है। पांडव नृत्य में सबसे आर्कषक होता है 'चक्रव्यूह' नाटक। इस नाटक में महाभारत की उस विख्यात, किंतु विस्मृत कथा का मंचन किया जाता है, जिसमें गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचे गये 'चक्रव्यूह' भेदन का प्रकरण अनुस्यूत है। इस मार्मिक कथा-प्रसंग के अनुसार चक्रव्यूह के सातवें द्वार पर आकर कौरवों ने मिलकर अभिमन्यु का वध कर दिया था। चक्रव्यूह के सात द्वार रंग-बिरंगे कपड़ों से बनाए जाते हैं।
रुद्रप्रयाग में गंगा स्नान संग दरमोला में पांडव नृत्य शुरूरुद्रप्रयाग जिला मुख्यालय से सटी ग्राम पंचायत दरमोला भरदार में मंगलवार को देव निशानो के गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य का शुभारंभ हो गया है। गांव में पांडव नृत्य लगभग 15 से 20 दिनों तक चलेगा। इससे पूर्व गत सोमवार देर सांय ढोल-दमाऊं के साथ देवता के निशान एवं घंटियां संगम स्थल पर स्नान के लिए पहुंची थी।यह भी पढ़ें: बदरीनाथ में श्रद्धा का केंद्र बना पंचमुखी देवदारयह भी पढ़ें: मार्कण्डेय मंदिर में विराजमान हुए तृतीय केदार तुंगनाथ
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