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Historical Jhanda Mela of Doon: 344 साल का गौरव है दून का झंडा मेला, जानिए मेले का ऐतिहासिक महत्व

सिखों के सातवें गुरु हरराय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र गुरु रामराय महाराज ने वर्ष 1675 में चैत्र मास कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन दून में कदम रखा था। यहीं से झंडेजी मेले की शुरूआत हुई।

By Bhanu Prakash SharmaEdited By: Updated: Sat, 14 Mar 2020 09:05 AM (IST)
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Historical Jhanda Mela of Doon: 344 साल का गौरव है दून का झंडा मेला, जानिए मेले का ऐतिहासिक महत्व
देहरादून, अशोक केडियाल। सिखों के सातवें गुरु हरराय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र गुरु रामराय महाराज ने वर्ष 1675 में चैत्र मास कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन दून में कदम रखा था। ठीक एक वर्ष बाद 1676 में इसी दिन उनके सम्मान में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। यहीं से झंडेजी मेले की शुरूआत हुई। जो कालांतर में दूनघाटी का वार्षिक समारोह बन गया। 

यह वह दौर था, जब देहरादून छोटा-सा गांव हुआ करता था। तब मेले में पहुंचने वाले लोगों के लिए भोजन का इंतजाम करना आसान नहीं था। इसी को देखते हुए श्री गुरु रामराय महाराज ने ऐसी व्यवस्था बनाई कि दरबार की चौखट में कदम रखने वाला कोई भी व्यक्ति भूखा न लौटे। इसके लिए उन्होंने दरबार में सांझा चूल्हे की स्थापना की।

द्रोणनगरी को बनाया तपस्थली 

देश में अनेक महात्मा हुए। जिन्होंने समाज और देश को बहुत कुछ दिया। दून को भी एक ऐसा महात्मा मिला, जिसने द्रोणनगरी को अपनी तपस्थली बना लिया और वो सब दिया जिसकी इसे जरूरत थी। पंजाब में जन्मे गुरु रामराय महाराज में बचपन से ही अलौकिक शक्तियां थीं। उन्होंने अल्पायु में ही असीम ज्ञान अर्जित कर लिया था। उनके सामाजिक कार्यों से समाज को नई दिशा भी मिली।  

गुरु साहिब ने डेरा डाला, बन गया देहरादून 

यह श्री गुरु राम राम का प्रभाव ही था कि उन्हें मुगल बादशाह औरंगजेब ने हिंदू पीर यानी महाराज की उपाधि दी थी। छोटी-सी उम्र में वैराग्य धारण करने के बाद वह संगतों के साथ भ्रमण पर निकल पड़े और भ्रमण के दौरान ही देहरादून आए। 

यहां खुड़बुड़ा के पास गुरु साहिब के घोड़े का पैर जमीन में धंस गया और उन्होंने संगत को यहीं पर रुकने का आदेश दिया। तब औरंगजेब ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह को उनका पूरा ख्याल रखने का आदेश दिया। महाराज जी ने चारों दिशाओं में तीर चलाए और जहां तक तीर गए, उतनी जमीन पर अपनी संगत को ठहरने का हुक्म दिया। गुरु रामराय महाराज के यहां डेरा डालाने के कारण इसे डेरादून कहा जाने लगा, जो बाद में डेरादून से देहरादून हो गया। 

चूल्हे की आंच ठंडी नहीं पड़ी

झंडे मेले की शुरूआत में पंजाब और हरियाणा से ही संगतें दरबार साहिब पहुंचती थीं। लेकिन, धीरे-धीरे झंडेजी की ख्याति देश-दुनिया में फैलने लगी। हर दिन झंडेजी के दर्शनों को श्रद्धालुओं की भीड़ उमडऩे लगी और इसी के साथ विस्तार पाने लगा दरबार साहिब के आंगन में खड़ा सद्भाव का सांझा चूल्हा। 

आज भी यहां हर दिन हजारों लोग एक ही छत के नीचे भोजन ग्रहण करते हैं। झंडा मेले के दौरान यह तादाद लाखों में पहुंच जाती है, इसलिए अलग-अलग स्थानों पर लंगर चलाने पड़ते हैं। लंगर की पूरी व्यवस्था दरबार की ओर से ही होती है।

दर्शनी गिलाफ से सजते हैं झंडेजी

मेले में झंडेजी पर गिलाफ चढ़ाने की परंपरा है। चैत्र में कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन पूजा-अर्चना के बाद पुराने झंडेजी को उतारा जाता है और ध्वजदंड में बंधे पुराने गिलाफ, दुपट्टे आदि हटाए जाते हैं। दरबार साहिब के सेवक दही, घी व गंगाजल से ध्वज दंड को स्नान कराते हैं। इसके बाद शुरू होती है झंडेजी को गिलाफ चढ़ाने की प्रक्रिया। झंडेजी पर पहले सादे (मारकीन के) और फिर सनील के गिलाफ चढ़ाते हैं। सबसे ऊपर दर्शनी गिलाफ चढ़ाया जाता है। पवित्र जल छिड़के जाने के बाद श्रद्धालु रंगीन रुमाल, दुपट्टे आदि बांधते हैं।

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दरबार साहिब में अब तक के महंत

महंत औददास (1687-1741)

महंत हरप्रसाद (1741-1766)

महंत हरसेवक (1766-1818)

महंत स्वरूपदास (1818-1842)

महंत प्रीतमदास (1842-1854)

महंत नारायणदास (1854-1885) 

महंत प्रयागदास (1885-1896)

महंत लक्ष्मणदास (1896-1945) 

महंत इंदिरेश चरण दास (1945-2000)

महंत देवेंद्रदास (25 जून 2000 से गद्दीनसीन)

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