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गढ़वाल अंचल में भी चढ़ रहा 'पिछौड़' का रंग, जानिए इसके बारे में

कुमाऊं की पारंपरिक ओढ़नी पिछौड़ हर पीढ़ी को काफी भा रही है और गढ़वाली शादियों में इसकी झलक भी देखने को मिल रही है।

By Raksha PanthariEdited By: Updated: Sun, 05 May 2019 08:21 AM (IST)
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गढ़वाल अंचल में भी चढ़ रहा 'पिछौड़' का रंग, जानिए इसके बारे में
देहरादून, दीपिका नेगी। आपने कुमाऊं अंचल में महिलाओं को अक्सर पीली या केसरिया रंग की लाल बिंदीदार ओढ़नी ओढ़े देखा होगा। यह कुमाऊं अंचल की पारंपरिक ओढ़नी है, जिसे 'पिछौड़' कहते हैं। शादी के बाद हर महिला के लिए यह पारंपरिक ओढ़नी खास अहमियत रखती है। इसे हर मांगलिक अवसर पर पहनना शुभ माना जाता है। वर्तमान में इसे गढ़वाल में भी फैशन ट्रेंड से जोड़कर देखा जाने लगा है। नई-पुरानी पीढ़ी, दोनों को ही यह ओढ़नी काफी भा रही है और गढ़वाली शादियों में इसकी झलक भी देखने को मिल रही है। 

एक दुल्हन के लिए कुमाऊं में पिछौड़े का वही महत्व है, जो पंजाब में फुलकारी का, लद्दाख में पेराक का या फिर हैदराबाद में दुपट्टे का। जो विवाह के अवसर पर दुल्हन को वधु या फिर वर पक्ष की ओर से दिया जाता है। पर्वतीय समाज में पिछौड़ा इस हद तक रचा-बसा है कि किसी भी मांगलिक अवसर पर घर की महिलाएं इसे अनिवार्य रूप से धारण कर ही रस्म पूरी करती हैं। इस ओढ़नी को रंगोली का पिछौड़ा या रंगवाली का पिछौड़ा कहते हैं। 

गढ़वाली दुल्हनों की बना पसंद 

गढ़वाल की शादियों में भी पिछौड़ का क्रेज काफी बढ़ा है। कुमाऊं-गढ़वाल के बीच बढ़ रहे वैवाहिक रिश्ते भी इसकी वजह हो सकते हैं। दून की क्लेमेनटाउन निवासी प्रीति की शादी होनी है। बताती है कि उसने अपनी एक सहेली को शादी में पिछौड़ा ओढ़े देखा था। इससे एक अलग तरह का नूर चेहरे पर आता है। इसलिए उसने भी अपनी शादी के लिए इसकी खरीदारी की है। 

फैशन ट्रेंड में जॉर्जट, सिफॉन के पिछौड़े 

फैशन के इस दौर का असर पारंपरिक पिछौड़े पर भी पड़ा है। अब गोटा, मोती, सीप, जरी के काम वाले सिफॉन और जॉर्जट के पिछौड़े लोगों को काफी भा रहे हैं। 

हाथ से बनाए पिछौड़े का खास आकर्षण 

अल्मोड़ा में पुराने समय से ही हाथ से बने पिछौड़े काफी लोकप्रिय रहे हैं। धीरे-धीरे मशीनों के बने आधुनिक पिछौड़ों ने बाजार में अपना रुतबा कायम कर लिया। बावजूद इसके आज भी घरों में परंपरागत रूप से हाथ से कलात्मक पिछौड़ा बनाने का काम होता है। हाथ से बने पिछौड़े का आकर्षण आज भी इतना अधिक है कि पर्वतीय जिलों के अलावा दिल्ली, मुंबई, लखनऊ और विदेशों में रहने वाले पर्वतीय परिवारों में इनकी खूब बिक्री होती है। 

ऐसे होता है तैयार 

इसे बनाने के लिए सफेद वाइल, सूती या चिकन का कपड़ा उपयोग में लाया जाता है। उसे गहरे पीले रंग में रंग लिया जाता है। आजकल रंगाई के लिए सिंथेटिक रंग उपयोग में लाए जा रहे हैं, लेकिन जब परंपरागत रंगों से इसकी रंगाई होती थी, तब किलमोड़े की जड़ पीसकर अथवा हल्दी से रंग तैयार किया जाता था। रंगने के बाद इसे छाया में सुखाया जाता है। इसी तरह लाल रंग बनाने के लिए कच्ची हल्दी में नींबू निचोड़कर उस पर सुहागा डाला जाता है। फिर उसे तांबे के बर्तन में रातभर रखकर सुबह नींबू के रस में पकाया जाता है। रंगाकन के लिए कपड़े के बीच में केंद्र स्थापित कर खोरिया अथवा स्वास्तिक बनाया जाता है। इसके चारों कोनों पर सूर्य, चंद्रमा, शंख, घंटी आदि बनाए जाते हैं। महिलाएं सिक्के पर कपड़ा लपेट कर रंगाकन करती हैं। 

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