Leopard Attack: उत्तराखंड में आखिर कब थमेंगे गुलदारों के हमले, हफ्तेभर में तीन को उतारा मौत के घाट
Leopard Attack उत्तराखंड में सालभर यदि कोई वन्यजीव चर्चा में रहता है तो वह है गुलदार। इनके हमले तो लगातार सुर्खियां बन ही रहे उससे ज्यादा हर किसी की जुबां पर चर्चा इसकी है कि आखिर कब तक राज्यवासी गुलदारों के खौफ से सहमे रहेंगे।
By Raksha PanthriEdited By: Updated: Sat, 24 Jul 2021 09:10 AM (IST)
केदार दत्त, देहरादून। Leopard Attack उत्तराखंड में सालभर यदि कोई वन्यजीव चर्चा में रहता है तो वह है गुलदार। इनके हमले तो लगातार सुर्खियां बन ही रहे, उससे ज्यादा हर किसी की जुबां पर चर्चा इसकी है कि आखिर कब तक राज्यवासी गुलदारों के खौफ से सहमे रहेंगे। हफ्तेभर के भीतर टिहरी और पिथौरागढ़ जिलों में दो महिलाओं व एक बालक की गुलदार के हमले में मौत की घटना के बाद यह मसला फिर से चर्चा के केंद्र में है। यह स्वाभाविक भी है। जनवरी से अब तक की तस्वीर देखें तो वन्यजीवों के हमलों में 27 व्यक्तियों की मृत्यु हुई, जिनमें 14 की मौत की वजह गुलदार बने। यही नहीं, 23 लोग इस अवधि में गुलदार के हमलों में जख्मी हुए हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रदेशभर में गुलदारों का खौफ किस कदर तारी है। सूरतेहाल, ऐसे कदम उठाने की दरकार है, जिससे मनुष्य भी सुरक्षित रहे और गुलदार भी।
यह छटा यूं ही रहे बरकरार
मानसून के रफ्तार पकड़ने के साथ ही 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में जंगलों की निखरी छटा भी देखते ही बनती है। चौतरफा फैली हरियाली और पेड़ पौधों पर फूटतीं कोपलें मन को मोह रही हैं। लिहाजा, प्रकृति प्रेमियों के जहन में अब यही बात आ रही कि काश, जंगलों की यह छटा यूं ही बरकरार रहे। दरअसल, प्रदेश में अक्टूबर से जंगल लगातार धधक रहे थे और जून के पहले हफ्ते तक यह सिलसिला बना हुआ था। इसके बाद इंद्रदेव मेहरबान हुए तो वनों को आग से मुक्ति मिली। तब सवाल उठ रहा था कि इस मर्तबा जितने बड़े पैमाने पर जंगल धधके हैं, क्या वे फिर से पनप पाएंगे। इसके बाद मानसून ने रफ्तार पकड़ी तो जंगल दोबारा से हरे-भरे हो गए। जंगलों की यह हरियाली निरंतर यूं ही बनी रहे, इसके लिए वन महकमे के साथ ही जनसामान्य को भी शिद्दत के साथ आगे आना होगा।
बीएमसी को अब मिलेगा उनका हक जैव विविधता के मामले में धनी उत्तराखंड में जैव विविधता अधिनियम लागू है। इसके तहत सभी नगर व ग्रामीण निकायों में जैव विविधता प्रबंधन समितियों (बीएमसी) का गठन हो चुका है। बीएमसी का जिम्मा अपने-अपने क्षेत्रों के जैव संसाधनों का संरक्षण और इनका व्यवसायिक उपयोग करने वालों पर नजर रखना है। दरअसल, जैव विविधता अधिनियम में प्रविधान है कि जैव संसाधनों का वाणिज्यिक उपयोग करने वाली कंपनियों, संस्थाओं व व्यक्तियों को अपने सालाना लाभांश में से 0.5 फीसद से तीन फीसद तक की हिस्सेदारी बीएमसी को देनी होगी। तमाम कंपनियां, संस्थाएं व व्यक्ति यह लाभांश जैव विविधता बोर्ड के पास जमा करा रहे हैं। अब तक बोर्ड के पास छह करोड़ की राशि जमा हो चुकी है, जिसे अब बीएमसी को बांटने की तैयारी है। यानी बीएमसी को अब उनका यह हक मिलने जा रहा है। इसके वितरण को क्या फार्मूला निकाला जाता है, इस पर सबकी नजरें टिकी हैं।
नर्सरी में महफूज रहेंगी ये वनस्पतियां मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड जड़ी-बूटियों का विपुल भंडार भी है। एक नहीं अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियां यहां विद्यमान हैं। औषधीय गुणों से लबरेज होने का गुण इन वनस्पतियों पर भारी पड़ रहा है। इनके अनियंत्रित दोहन का ही नतीजा है कि कई वनस्पतियों के अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है। उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड ने पड़ताल की तो बात सामने आई कि 16 वानस्पतिक प्रजातियां समाप्त होने की कगार पर हैं। बोर्ड ने इन्हें संकटापन्न श्रेणी में अधिसूचित किया तो वन महकमे की रिसर्च विंग ने इनके संरक्षण की मुहिम शुरू की। इसके सार्थक नतीजे आए। अब तक प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों की नर्सरियों में 15 प्रजातियों को संरक्षित करने में कामयाबी मिल गई। इनमें से कुछ प्रजातियों का रोपण भी प्राकृतिक वासस्थलों में किया जाने लगा है। निश्चित ही यह बेहतर पहल है, मगर औषधीय वनस्पतियां संरक्षित रहें, इसके लिए प्रभावी कार्ययोजना बनाने की भी दरकार है।
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