यहां भगवान शिव तीन युगों तक गुप्त रूप में रहे
गढ़वाल मंडल मुख्यालय पौड़ी के शीर्ष पर भगवान कंकालेश्वर महादेव मंदिर स्थित है। मान्यता है कि यहां भगवान तीन युगों (सतयुग, त्रेता युग व द्वापर) तक गुप्त रूप में रहे।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Mon, 06 Aug 2018 04:08 PM (IST)
देहरादून, [जेएनएन]: उत्तराखंड की पर्यटन, संस्कृति नगरी, जनपद व गढ़वाल मंडल मुख्यालय पौड़ी के शीर्ष पर भगवान कंकालेश्वर महादेव मंदिर स्थित है। इस स्थल की प्राकृतिक रम्यता अलौकिक है। बांज, बुरांश, देवदार के सदाबहार जंगल के बीच करीब 2 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित यह देव स्थल भगवान शिव का गुप्त स्थल है। यहां भगवान तीन युगों (सतयुग, त्रेता युग व द्वापर) तक गुप्त रुप में रहे। स्कंद पुराण के केदारखंड में सिद्धपीठ कंकालेश्वर महादेव मंदिर का विशेष वर्णन है। हालांकि आज के दौर में कंकालेश्वर महादेव मंदिर का नाम अपभ्रंशित होकर क्यूंकालेश्वर महादेव हो गया है।
इतिहास: केदारखंड में कंकालेश्वर महादेव मंदिर का वर्णन करते हुए उल्लेख किया गया है कि त्रेता युग में ताड़केश्वर नामक दैत्य से परेशान यमराज ने भगवान शिव की तपस्या किनास पर्वत पर की थी। तपस्या के दौरान यमराज की शरीर कंकाल की तरह हो गया था। जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने यमराज को माता पार्वती व गणों सहित दर्शन दिए। जिसमें उन्होंने यमराज को भयमुक्त करते हुए दो वचन दिए। पहला कि अब (त्रेता युग) में इस स्थल पर गुप्त रुप में रहकर कलयुग में प्रकट होऊंगा। दूसरा कलयुग में इस स्थल पर तप व उपासना करने वालो को मुक्ति-भुक्ति प्रदान करुंगा। मंदिर परिसर स्थित शिलालेख में मंदिर निर्माण व शिवङ्क्षलग स्थापना की तिथि को अषाढ़ गंगा दशहरा संवत 1900 बताया गया है। जिसे मुनि मित्र शर्मा द्वारा स्थापित किया गया है। वहीं पर्यटन विभाग की ओर से मंदिर को 8वीं सदी में शंकराचार्य शैली में बना बताया गया है। जिसे महंत सिरे से खारिज करते हैं। सतयुग में किनास पर्वत की रचना कोलासुर के सिर के ऊपर स्थापित किया गया था। कोलासुर वहीं दैत्य था जिसका संहार माँ भगवती त्रिपुरा सुंदरी ने श्रीनगर में किया था। कोलासुर के सिर पर स्थित होने के कारण इस क्षेत्र को श्रीक्षेत्र भी कहा जाता है। इस क्षेत्र के महत्व को देखते हुए ही यमराज ने त्रेता युग में तपस्या के लिए चुना था। मान्यता के अनुसार इस स्थल को पूजा-अर्चना के ज्यादा तप के लिए जाना जाता है। यहां भगवान की आराधना करने से भक्तो को मुक्ति प्रदान होती है।
तैयारियां:क्यूंकालेश्वर महादेव मंदिर में सावन के माह में जलाभिषेक के लिए भक्तों व श्रद्धालुओ की भीड़ उमड़कर आती है। मंदिर में बारामास पूजा-अर्चना की जाती है। मंदिर में देश की आजादी से पहले केदारनाथ मंदिर के रावल व टिहरी नरेश पूजा अर्चना के लिए सामग्री प्रदान करते थे। जो बाद में बंद हो गई। पूर्व अध्यक्ष बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति विनोद नौटियाल के दौर से समिति की ओर से पूजा सामग्री मंदिर में आती है।
क्यूंकालेश्वर महादेव मंदिर अलौकिकता, पौराणिता को समेटे हुए है। यहां की प्राकृतिक छटा मुग्ध करने वाली है। सावन माह में भक्तों की भीड़ उमड़ी रहती है। भगवान के दर्शन से ही भक्तों की मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। मोहन ङ्क्षसह रावत गांववासी।
भगवान शिव का महा मृत्युंजय मंत्रपंडित सुरेश शास्त्री (ज्योतिषाचार्य उत्तरकाशी) का कहना है कि भगवान शिव का महामृत्युंजय मंत्र या महामृत्युंजय मंत्र 'मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र' जिसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है, यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गई एक वंदना है। हिंदू धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है। बड़ी तपस्या से ऋषि मृकण्ड के पुत्र हुआ, जिसका नाम मार्कण्डेय रखा गया। किंतु ज्योतिर्विदों ने उस शिशु के लक्षण देखकर ऋषि के हर्ष को चिंता में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने कहा यह बालक अल्पायु है।
इसकी आयु केवल बारह वर्ष है। मृकण्ड ऋषि ने अपनी पत्नी को आश्वत किया-देवी, चिंता मत करो। विधाता जीव के कर्मानुसार ही आयु दे सकते हैं, कितु मेरे स्वामी समर्थ हैं। कुमारावस्था के प्रारंभ में ही पिता ने मार्कण्डेय को शिव मंत्र की दीक्षा तथा शिवार्चना की शिक्षा दी।मार्कण्डेय जब 12 साल के हुए तो वे मंदिर में बैठे थे। रात्रि से ही वे मृत्युंजय मंत्र का जप कर रहे थे। यमराज के दूत समय पर आए और संयमनी लौट गए और अपने स्वामी यमराज से जाकर कहा कि वे मार्कण्डेय तक पहुंचने का साहस नहीं पाए। इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लाऊंगा। दण्डधर यमराज जी महिषारूढ़ हुए और क्षण भर में मार्कण्डेय के पास पहुंच गए।
बालक मार्कण्डेय ने उन कज्जल कृष्ण, रक्तनेत्र पाशधारी को देखा तो लिंगमूर्ति से लिपट गया। यमराज जब मार्कण्डेय के पास गए तो शिवलिंग से तेजोमय त्रिनेत्र भगवान शिव प्रकट हुए और त्रिशूल उठाकर यमराज से कहा कि हे काल तू काल तो मैं महाकाल हूं, ये बालक मेरे महामृत्युंजय मंत्र के प्रभाव से अमर हो चुका है। मार्कण्डेय संयमनी नहीं जाएगा। इसके बाद यमराज खाली हाथ लौट गए। यही बालक आगे चलकर मार्कण्डेय ऋषि के रूप मे विख्यात हुआ। यह भी पढ़ें: यहां शिव का रुद्राभिषेक करने से होती है मनोकामनाएं पूरी
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