एक ब्रिटिश मिलिट्री अधिकारी ने खोजी थी मसूरी, जुटे रहे इसे संवारने में
कैप्टन फ्रेडरिक यंग अंग्रेजी सेना के अफसर बनकर मसूरी आए थे लेकिन यह जगह उन्हें इस कदर रास आई कि फिर पूरे 40 साल यहीं रहकर इसे संवारने में जुटे रहे।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Sat, 11 Jan 2020 08:30 PM (IST)
देहरादून, जेएनएन। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में मसूरी को विश्व के सात प्रमुख शहरों में जाना जाता है। यहां वे सारी सुविधाएं मौजूद थीं, जो उस जमाने में इंग्लैंड में हुआ करती थीं। लेकिन, यह सब संभव हो पाया था कैप्टन फ्रेडरिक यंग की बदौलत। वह मसूरी आए तो थे अंग्रेजी सेना के अफसर बनकर, लेकिन यह जगह उन्हें इस कदर रास आई कि फिर पूरे 40 साल यहीं रहकर इसे संवारने में जुटे रहे। कैप्टन फ्रेडरिक यंग मसूरी के विकास में योगदान को रेखांकित कर रहे हैं दिनेश कुकरेती।
गोरखाओं के साथ युद्ध में टिहरी रियासत को दिलाई विजयफ्रेडरिक यंग का जन्म आयरलैंड के डोनेगल प्रांत में 30 नवंबर 1786 को हुआ था। 18 वर्ष की उम्र में वे ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर भारत आ गए। यहां उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में अहम भूमिका निभाई और कई भारतीय रियासतों को जीतने के साथ ही दक्षिण भारत में टीपू सुल्तान से युद्ध कर उन्हें भी पराजित किया। वर्ष 1814 में कैप्टन यंग का स्थानांतरण देहरादून कर दिया गया। तब यहां टिहरी रियासत और गोरखा सेना के बीच युद्ध चल रहा था।
इसके लिए टिहरी नरेश ने अंग्रेजी सेना की मदद मांगी। लगभग डेढ़ माह चले इस युद्ध के पहले चरण में अंग्रेजी सेना के कई अधिकारी मारे गए, जिनमें मेजर जनरल रॉबर्ट रोलो जिलेप्सी भी शामिल थे। कैप्टन यंग तब उनके सहायक हुआ करते थे। जिलेप्सी की मौत के बाद उन्होंने सेना की कमान संभाली। उनके नेतृत्व में सहारनपुर, लुधियाना, गोरखपुर आदि स्थानों से सेना बुलाकर दोबारा खलंगा के अभेद्य किले पर आक्रमण किया गया। तब तोप से 18 पाउंड के गोले दागे गए, जिससे किला ध्वस्त हो गया। युद्ध का समापन गोरखा सेना की हार के साथ 30 नवंबर 1814 को हुआ। गोरखाओं के यहां से हिमाचल जाने पर एक संधि के तहत टिहरी महाराज ने राज्य का आधा हिस्सा अंग्रेजों को दे दिया। यह हिस्सा ब्रिटिश गढ़वाल कहलाया।
हिमाचल में खड़ी की सिरमौर रेजीमेंटइस युद्ध के बाद कैप्टन फ्रेडरिक यंग ने हिमाचल प्रदेश में भी गोरखा सेना से लोहा लिया। उन्होंने देखा कि गोरखा साहसी व वीर हैं, सो हुकूमत के सहयोग से पहले उन्होंने सिरमौर रेजीमेंट का गठन किया और फिर गोरखाओं को अपना बनाकर उनकी रेजीमेंट खड़ी की। कालांतर में इस रेजीमेंट के सहयोग से अंग्रेजों ने देशभर की कई रियासतों पर अपना अधिकार जमाया।
मसूरी की सुंदरता पर रीझ गए थे कैप्टन यंगसेना में जनरल बनने के बाद वर्ष 1823 में कैप्टन यंग ने मसूरी को बसाने का कार्य शुरू किया। तब अंग्रेज मसूरी के जंगलों में शिकार खेलने आया करते थे। कैप्टन यंग को यह जगह हर दृष्टि से आयरलैंड की तरह ही लगी। यहां की खूबसूरती और जलवायु ने उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया। इसलिए उन्होंने मसूरी में ही डेरा डालने की ठान ली। सबसे पहले उन्होंने मसूरी के मलिंगार में शूटिंग रेंज बनाई और वर्ष 1825 में अपने लिए झोपड़ीनुमा कच्चा मकान भी बना लिया। उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों को मनाया कि यहां सैनिकों के लिए एक सेनिटोरियम बना लिया जाए। वर्ष 1827 में यह सेनिटोरियम बनकर तैयार हुआ और फिर अंग्रेजों ने यहां बसागत शुरू कर दी। मसूरी नगर पालिका के गठन में भी यंग का अहम योगदान रहा।
'सिस्टर बाजार' भी यंग की ही देनकैप्टन यंग मसूरी की ऊंची पहाड़ी (अब लंढौर कैंट) पर सैनिकों के लिए बैरक और अस्पताल बनाना चाहते थे। इसके लिए पहले उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से विचार-विमर्श कर उन्हें विश्वास में लिया और फिर अस्पताल बनाने का कार्य शुरू किया। इस अस्पताल को ब्रिटिश मिलिट्री अस्पताल नाम दया गया। यहां मुख्य रूप से युद्ध में घायल अंग्रेजी फौज के जवानों का इलाज होता था। इसके साथ ही घायलों का उपचार एवं देख-रेख करने वाली नर्स व सिस्टरों के लिए यहां आवासीय भी परिसर बनाए गए थे। इसीलिए कालांतर में इस बाजार को 'सिस्टर बाजार' नाम से जाना जाने लगा।
यंग के मनाने पर अफसरों ने नहीं छोड़ी मसूरी कैप्टन यंग को मसूरी को बसाने का श्रेय इसलिए भी जाता है, क्योंकि उन्हीं के मनाने पर अंग्रेज उच्चाधिकारी मसूरी में ही रहने के लिए तैयार हुए थे। दरअसल, अंग्रेजी फौज के उच्चाधिकारी विलियम बेंटिक ने मसूरी को ब्रिटिश प्रशासन के अनुकूल न होने की बात कहते हुए इस स्थान को छोड़ने का निर्णय ले लिया था। ऐसे में कैप्टन यंग ने उन्हें भरोसा दिलाते हुए न केवल मसूरी को एक शानदार हिल स्टेशन व सैनिक डिपो के रूप में विकसित करने की जिम्मेदारी ली, बल्कि उसे पूरा करके भी दिखाया।
यंग ने शुरू की थी आलू व चाय की खेतीमसूरी में आलू और चाय की खेती भी कैप्टन यंग की ही देन है। बताते हैं कि वर्ष 1827 से पूर्व गढ़वाल-कुमाऊं में कहीं भी आलू नहीं होता था। तब आलू सिर्फ यंग के वतन आयरलैंड में ही उगाया जाता था। मसूरी के मलिंगार में जहां कैप्टन यंग ने अपनी झोपड़ी बनाई थी, वहीं आंगन के आगे आलू के खेत भी बनाए। इसके बाद तो उत्तराखंड में जगह-जगह आलू की खेती होने लगी।
यह भी पढ़ें: देहरादून का राजपुर, कभी हुआ करती थी एक संपन्न व्यापारिक बस्तीराजपुर गांव में था यंग का 'डोनेगल हाउस'कैप्टन यंग मसूरी में लगभग 40 साल रहे। बाद में वे देहरादून के सुपरिटेंडेंट भी बने। देहरादून के पास राजपुर गांव में 'डोनेगल हाउस' नाम से उनका शानदार आवास हुआ करता था। हालांकि, वर्तमान में वह मौजूद नहीं है। राजपुर-शहंशाही आश्रम के मध्य से होकर आज भी जो मार्ग झड़ीपानी होते हुए मसूरी को जोड़ता है, उसे कैप्टन यंग ने ही बनवाया था। मसूरी में भारी-भरकम वाटर पंप, विद्युतगृह और तमाम भवनों के लिए तब निर्माण सामग्री राजपुर-झड़ीपानी मार्ग से ही मसूरी व लंढौर कैंट तक पहुंचाई गई थी।
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