Sanskaarshala: स्क्रीन टाइम बढ़ने से बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास पर पड़ने लगा है बुरा असर
Sanskaarshala दैनिक जागरण संस्कारशाला के तहत डिजिटल संस्कारों की कड़ी में स्क्रीन टाइम का अनुशासन विषय पर आनलाइन पैनल डिस्कशन का आयोजन किया गया। जिसमें मनोचिकित्सक शिक्षक समाजसेवी अभिभावक आदि ने अपने सुझाव दिए। कहा यह विकास न बाधित हो इसके लिए स्क्रीन टाइम निश्चित करें।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Sat, 10 Sep 2022 08:06 PM (IST)
जागरण संवाददाता, देहरादून : फोन व इंटरनेट जहां आज जरूरत बन गए हैं, वहीं इनसे अभिभावकों के सामने भी दोहरी मुश्किल खड़ी हुई हैं। क्योंकि न तो बच्चों को पूरी तरह से इनका प्रयोग करने से रोका जा सकता है और न ही पूरी तरह छूट दी जा सकती है। क्योंकि यहां सब एक क्लिक पर सब उपलब्ध है।
डिजिटल प्लेटफार्म पर कई ऐसी भी चीजें हैं जिनकी समय से पहले जानकारी बच्चों के लिए सही नहीं है। स्क्रीन टाइम बढ़ने से बच्चों के मानसिक व शारीरिक विकास पर बुरा असर पड़ने लगा है। लिहाजा, आज इस पहलू पर गंभीरता से सोच विचार की जरूरत है।
ऐसे में दैनिक जागरण संस्कारशाला के तहत डिजिटल संस्कारों की कड़ी में 'स्क्रीन टाइम का अनुशासन' विषय पर आनलाइन 'पैनल डिस्कशन' का आयोजन किया गया। जिसमें मनोचिकित्सक, शिक्षक, समाजसेवी, अभिभावक आदि ने अपने सुझाव दिए। कहा कि बाल्यावस्था से लेकर किशोरावस्था तक एक व्यक्ति में चरणबद्ध ढंग से शारीरिक व मानसिक विकास होता है। यह विकास न बाधित हो इसके लिए स्क्रीन टाइम निश्चित करना बहुत जरूरी है।
फोन, इंटरनेट की लत न लगने दें
पैनलिस्ट ने कहा कि यदि आप इंटरनेट का इस्तेमाल किसी सही उद्देश्य के लिए करते हैं, तो सोचने-समझने, तर्क शक्ति आदि विकसित होती है। पर यदि टाइम पास, सामाजिक जुड़ाव आदि के लिए करते हैं तो यह धीरे-धीरे लत बन जाता है।ऐसे में मां-बाप को बच्चे से भावनात्मक रूप से जुड़ना होगा। घर पर ऐसा माहौल रखें कि बच्चा गैजेट्स में नहीं, आपसे जुड़े। फोन व अन्य गैजेट्स का प्रयोग करने के लिए आत्म अनुशासन, आत्म विनियमन की भी जरूरत है। जिसमें माता-पिता दोनों की बराबर की जिम्मेदारी है।
बच्चों के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ें
जानकार मानते हैं कि आजकल एकल परिवार के चलते बच्चों को माता-पिता का समय नहीं मिल पाता। अपनी व्यस्तता के बीच मां-बाप खुद ही बच्चे को मोबाइल थमा देते हैं। इससे वह आभासी दुनिया को ही अपनी असली दुनिया समझने लगते हैं। साथ ही माता पिता से जुड़ाव भी खत्म होने लगता है।आज बहुत कम मां-बाप बच्चे की शक्ति, रुचि और योग्यता के अनुरूप उसे प्रेरित करने व वातावरण पैदा करने की कोशिश करते हैं। वह अपनी सुविधा, रुचि व जरूरत के अनुसार उन्हें ढालने का प्रयास करते हैं। प्रेम, प्रोत्साहन, सम्मान व सुरक्षा इन सबकी आवश्यकता बड़ों से ज्यादा बच्चे को है। बच्चों में दिलचस्पी लें, उनकी उलझनों को सहानुभूतिपूर्वक सुनें और धीरे-धीरे उनकी भावनाओं का विकास करते चलें।
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- जन्म से दो वर्षों तक बच्चों को मोबाइल फोन या स्क्रीन के संपर्क में न आने दें।
- तीन से पांच वर्ष तक स्क्रीन टाइम आधा घंटा हो।
- छह से 12 वर्ष तक के बच्चों के लिए स्क्रीन टाइम एक से दो घंटा हो।
- 12 से अधिक आयु वर्ग के बच्चों के लिए स्क्रीन टाइम तीन से चार घंटे तक हो।
ये आए सुझाव
- बच्चे को वास्तविक और आभासी दुनिया के बीच का फर्क समझाइये।
- मोबाइल व अन्य गैजेट्स को सुविधा के तौर पर लें, अनिवार्यता न बनाएं।
- हम उम्र बच्चों से घुलने-मिलने, खेलकूद, व्यायाम, किताबें पढ़ने आदि के लिए प्रेरित करें।
- बच्चों की रुचि को बढ़ावा दें और उनके तमाम गतिविधियों में खुद भी भागीदार बनें।
- बच्चा इन गतिविधियों में हिस्सा लेगा तो खुद ही स्क्रीन टाइम घटने लगेगा।
- बच्चा फोन पर क्या कर रहा है, क्या देख रहा है इसका ख्याल रखें।
- बच्चों के लिए समय निकालें। उन्हें पारिवारिक समय दें।
- अभिभावक एवं शिक्षकों के लिए भी डिजिटल साक्षरता जरूरी।
- बच्चों की मदद और निर्देशन के लिए उन्हें इंटरनेट सिक्योरिटी एवं प्राइवेसी की जानकारी दी जानी चाहिए।
- अभिभावक उदाहरण स्थापित करें, डिजिटल अनुशासन पहले खुद पर लागू करें।
- बच्चों को फोन के दुष्प्रभाव की ओर जागरूक करें।
ये हुए शामिल
- डा. वीणा कृष्णन, मनोवैज्ञानिक
- विभा नौडियाल, शिक्षिका केवि-1 हाथीबड़कला
- डा. सुनीता रावत, प्रधानाचार्या, श्री गुरुराम राय पब्लिक स्कूल, बसंत विहार
- प्रदीप गौड़, प्रधानाचार्य, न्यू एरा एकेडमी
- भुवन कुनियाल, उप प्रधानाचार्य, राजीव गांधी नवोदय विद्यालय हरिद्वार
- डा. लक्ष्मण चौहान, शिक्षक राजीव गांधी नवोदय विद्यालय, देहरादून
- रमा गोयल, समाजसेवी
- रीना ढौंडियाल, अभिभावक