उत्तराखंड की सियासत में नहीं चलता चेहरे का दांव
कांग्रेस महासचिव एवं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की अगले विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के मुख्यमंत्री के चेहरे के एलान की डिमांड ने सियासी गलियारों में नई बहस छेड़ दी है। कुछ रावत की बात को सही ठहरा रहे हैं तो कुछ इसे सिरे से खारिज भी कर दे रहे।
By Raksha PanthriEdited By: Updated: Sun, 24 Jan 2021 11:29 AM (IST)
राज्य ब्यूरो, देहरादून। कांग्रेस महासचिव एवं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की अगले विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के मुख्यमंत्री के चेहरे के एलान की डिमांड ने सियासी गलियारों में नई बहस छेड़ दी है। कुछ रावत की बात को सही ठहरा रहे हैं, तो कुछ इसे सिरे से खारिज भी कर दे रहे हैं। अगर उत्तराखंड के विशेष परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहां अब तक हुए चार विधानसभा चुनाव में केवल एक मौका ऐसा आया, जब मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने का किसी पार्टी को फायदा मिला और उसने सत्ता पाई। यह था वर्ष 2007 में हुआ राज्य का दूसरा विधानसभा चुनाव, जब भाजपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी के चेहरे पर दांव खेलकर सत्ता में वापसी की थी। बाकी तीन विधानसभा चुनाव में सरकार बनाने वाली पार्टी ने ऐसे चेहरों को मुख्यमंत्री बनाया, जिनके नाम की कहीं चर्चा तक नहीं थी।
वर्ष 2002 में हरीश रावत कर रहे थे कांग्रेस का नेतृत्व
शुरुआत करते हैं उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद वर्ष 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव से। नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड (तब नाम उत्तरांचल) की पैदाइश हुई। उत्तर प्रदेश विधानसभा व विधान परिषद के 30 सदस्यों को लेकर अंतरिम विधानसभा बनाई गई, जिसमें भाजपा का बहुमत था। इसलिए पहली अंतरिम सरकार बनाने का अवसर मिला भाजपा को और पहले मुख्यमंत्री बने नित्यानंद स्वामी। स्वामी अपना एक साल का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाए। उनकी विदाई के बाद भगत सिंह कोश्यारी राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री बने। उन्हें लगभग चार महीने का कार्यकाल मिला। स्वाभाविक रूप से तब पहले विधानसभा चुनाव में भाजपा कोश्यारी के चेहरे के साथ ही मैदान में उतरी। उधर, कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत।
रावत दरकिनार और मुख्यमंत्री बन गए एनडी तिवारी इस चुनाव में कांग्रेस तमाम अंतरविरोध के बावजूद अप्रत्याशित रूप से भाजपा को शिकस्त देने में कामयाब हो गई। कांग्रेस ने 70 में से 36 सीटों पर जीत दर्ज कर बहुमत का आंकड़ा छू लिया। भाजपा 19 सीटों पर जा सिमटी। बसपा सात और उत्तराखंड क्रांति दल चार सीटों पर काबिज हुए। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को एक सीट मिली, जबकि तीन निर्दलीय भी विधानसभा पहुंचे। बहुमत मिलने के बावजूद तब मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार हरीश रावत को दरकिनार कर कांग्रेस आलाकमान ने नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। तिवारी विधानसभा चुनाव भी नहीं लड़े थे। कांग्रेस के इस फैसले से न केवल आम जनता, बल्कि खुद हरीश रावत व उनका खेमा भी चौंक कर रह गया। यानी पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का जो चेहरा था, कुर्सी उसे नहीं मिली।
खंडूड़ी को किया प्रोजेक्ट, भाजपा को मिला पूरा फायदावर्ष 2007 के दूसरे विधानसभा चुनाव में भाजपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी को चेहरा बनाया। हालांकि सीधे तौर पर पार्टी इस तरह के एलान से बची, मगर खंडूड़ी को चुनाव अभियान की कमान सौंप कर कमोबेश संकेत साफ कर दिए गए थे। इस चुनाव में भाजपा को खंडूड़ी की छवि का पूरा फायदा मिला। सत्ता में वापसी करते हुए भाजपा ने 70 में से 35 सीटें हासिल की। कांग्रेस के हिस्से 21 और बसपा को आठ सीटों पर जीत मिली। उक्रांद का आंकड़ा तीन सीटों का रहा, जबकि तीन निर्दलीय भी विधायक बने। तब भाजपा ने उक्रांद व निर्दलीय के समर्थन से सरकार बनाई। दिलचस्प बात यह रही कि इस चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी खुद मैदान में नहीं उतरे। यह बात दीगर है कि भाजपा के अंदरूनी कलह के कारण खंडूड़ी को सवा दो साल में पद छोड़ना पड़ा।
वर्ष 2012 में भाजपा ने चला पुराना दांव, मतदाता ने नकाराखंडूड़ी के उत्तराधिकारी के रूप में रमेश पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला, लेकिन लगभग सवा दो साल बाद वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव से चंद महीने पहले भाजपा ने एक बार फिर खंडूड़ी की मुख्यमंत्री पद पर वापसी करा दी। दरअसल, भाजपा एक बार फिर भुवन चंद्र खंडूड़ी के चेहरे के साथ ही चुनाव में जाना चाहती भी लेकिन इस बार भाजपा की रणनीति कामयाब नहीं हो पाई। स्वयं खंडूड़ी चुनाव हार गए और भाजपा का आंकड़ा 31 तक ही पहुंच पाया। कांग्रेस एक सीट ज्यादा, 32 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और स्वाभाविक रूप से सरकार बनाने की दावेदार बन गई। कोई एक चेहरा प्रोजेक्ट नहीं था, जबकि मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में कांग्रेस के तीन क्षत्रप हरीश रावत, विजय बहुगुणा, सतपाल महाराज थे, लेकिन अवसर मिला विजय बहुगुणा को।
बहुगुणा के बाद रावत आए, लेकिन वह भी सत्ता नहीं बचा पाएयह बात दीगर है कि तीसरी विधानसभा में सत्ता में आने के बावजूद कांग्रेस में इतनी उठापटक हुई कि पार्टी को बड़ी टूट का सामना करना पड़ा। बहुगुणा को दो साल का कार्यकाल पूरा करने से पहले वर्ष 2014 की शुरुआत में मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी। उनके स्थान पर आखिरकार कांग्रेस आलाकमान ने हरीश रावत को मुख्यमंत्री बना ही दिया। इसके बाद सतपाल महाराज, विजय बहुगुणा, हरक सिंह रावत, यशपाल आर्य जैसे दिग्गज एक-एक कर कर कांग्रेस छोड भाजपा में शामिल हो गए। अब रावत मुख्यमंत्री थे, तो उन्हीं के चेहरे के साथ कांग्रेस वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में उतरी। यह चुनाव कांग्रेस पर सबसे भारी गुजरा। सत्ता से कांग्रेस को बेदखल तो होना ही पड़ा, उसके हिस्से केवल 11 ही सीटें आईं। रावत स्वयं दो सीटों से चुनाव लड़े मगर एक पर भी जीत दर्ज नहीं कर पाए।
बगैर चेहरा आगे किए भाजपा ने पाया ऐतिहासिक बहुमतइस चुनाव में भाजपा ने एतिहासिक जीत दर्ज की। कुल 70 में से 57 सीटें भाजपा के हिस्से आई। दो निर्दलीय विधायक भी चुने गए। बसपा और उक्रांद का सूपड़ा साफ हो गया। दिलचस्प बात यह रही कि इस चुनाव में भाजपा ने किसी को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया। दो पूर्व मुख्यमंत्री खंडूड़ी व निशंक उस वक्त सांसद थे, लिहाजा उनकी दावेदारी थी ही नहीं। अलबत्ता तत्कालीन भाजपा प्रदेश अध्यक्ष अजय भटट को जरूर एक दावेदार समझा जा रहा था, लेकिन वह चुनाव हार गए। इस स्थिति में भाजपा नेतृत्व ने प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके और सांगठनिक क्षमता रखने वाले त्रिवेंद्र सिंह रावत को सरकार की कमान सौंप दी। अब जबकि एक साल बाद विधानसभा चुनाव हैं, साफ है कि त्रिवेंद्र ही भाजपा का चुनावी चेहरा होंगे। उधर, कांग्रेस फिलहाल हरीश रावत की डिमांड को तवज्जो देती नहीं दिख रही है।
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