जंगलों में गाजर घास की फांस, यह मनुष्य और वन्यजीवों के लिए भी है नुकसानकारी
वर्षाकाल शुरू होते ही उत्तराखंड के जंगलों की आभा भी निखर आई है। करीब आठ महीने तक आग से झुलसते रहे जंगलों में मानसून के सक्रिय होते ही हरियाली लौट आई है। आज की स्थिति देखकर लगता ही नहीं कि कल तक जंगल आग से झुलस रहे थे।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Sat, 26 Jun 2021 06:45 AM (IST)
केदार दत्त, देहरादून। वर्षाकाल शुरू होते ही उत्तराखंड के जंगलों की आभा भी निखर आई है। करीब आठ महीने तक आग से झुलसते रहे जंगलों में मानसून के सक्रिय होते ही हरियाली लौट आई है। आज की स्थिति देखकर लगता ही नहीं कि कल तक जंगल आग से झुलस रहे थे। यही तो कुदरत का करिश्मा है। हरे-भरे जंगल हर किसी का ध्यान खींच रहे हैं, लेकिन इसमें भी चिंता के बादल मंडरा रहे हैं। वजह है जंगलों में घुसपैठिये पौधों की बढ़ती पैठ। लैंटाना कमारा (कुर्री) ने पहले ही नाक में दम किया हुआ है। अब बरसात शुरू होते ही जंगलों में गाजरघास (पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस) के बड़े-बड़े पैच साफ दिखने लगे हैं। कांग्रेस घास समेत अन्य नामों से पहचानी जाने वाली यह खरपतवार पर्यावरण के साथ-साथ मनुष्य और वन्यजीवों के लिए भी नुकसानकारी है। हालांकि, गाजरघास की फांस से निजात पाने को कसरत तो हो रही, मगर ठोस उपायों की दरकार है।
बेहद जरूरी है कचरा प्रबंधन
शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों से निकलने वाला हजारों टन कूड़ा-कचरा जंगलों के लिए भी मुसीबत बना हुआ है। शहरी क्षेत्रों को ही लें तो वहां से प्रतिदिन करीब 1700 मीट्रिक टन कूड़ा-कचरा निकलता है। इसका काफी हद तक निस्तारण हो रहा, लेकिन बड़ी मात्रा में यह नदी-नालों से जंगलों में भी पहुंच रहा है। ऐसी ही स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों की है। यद्यपि, शहरों-गांवों में कचरा प्रबंधन पर फोकस किया गया है, लेकिन वन क्षेत्रों में भी यह मुहिम चलाने की दरकार है। दरअसल, कूड़े-कचरे के साथ बड़े पैमाने पर प्लास्टिक-पालीथिन भी जंगलों में पहुंच रहा है। प्लास्टिक के कचरे से उत्पन्न पर्यावरणीय खतरों से हर कोई वाकिफ है और इसी ने चिंता अधिक बढ़ाई हुई है। पूर्व में ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जब मृत मिले वन्यजीवों के पोस्टमार्टम में उनके पेट से पालीथिन की थैलियां मिली थीं। इस सबको देखते हुए जंगलों में कचरा प्रबंधन बेहद आवश्यक है।
चिड़ियाघर प्राधिकरण बनाने की कसरतकोशिशें रंग लाईं तो निकट भविष्य में उत्तराखंड में वन विभाग के अधीन स्थित सभी चिड़ियाघर, रेस्क्यू सेंटर, टाइगर सफारी सभी प्रबंधन के लिहाज से एक छतरी के नीचे आएंगे। दरअसल, यह समय की मांग भी है। वर्तमान में राज्य में दो चिड़ियाघर और दो रेस्क्यू सेंटर हैं। इनकी समितियां गठित हैं। चिड़ियाघरों में पर्यटन से होने वाली आय को वहां संसाधन विकसित करने समेत अन्य कार्यों में लगाया जाता है, मगर रेस्क्यू सेंटर में ऐसा नहीं हो पाता। अब जबकि सरकार ने हल्द्वानी में जू व सफारी, कार्बेट टाइगर रिजर्व के बफर पाखरो में टाइगर सफारी, विभिन्न स्थानों पर रेस्क्यू सेंटर आदि बनाने का निश्चय किया है तो ऐसे में इनके बेहतर प्रबंधन के लिए प्राधिकरण होना आवश्यक है। इससे ये सभी न सिर्फ एक छतरी के नीचे आएंगे, बल्कि इनमें संसाधन जुटाने के मद्देनजर केंद्र व राज्य सरकारों से बजट की उपलब्धता कराने में भी मदद मिल सकेगी।
बढ़ने लगा हाथियों का मूवमेंटहाल की बात है, जब गर्मी बढ़ने पर हलक तर करने के लिए हाथियों का मूवमेंट उन आबादी वाले क्षेत्रों के इर्द-गिर्द होने लगा था, जहां पानी के स्रोत अथवा नदियां हैं। चाहे वह राजाजी टाइगर रिजर्व से लगी गंगा नदी व गंगा नहर के इलाके हों अथवा कार्बेट व राजाजी टाइगर रिजर्व के मध्य लैंसडौन वन प्रभाग के अंतर्गत कोटद्वार की खोह नदी। वहां हाथियों की लगातार आवाजाही से खतरा बना हुआ था। अब जबकि मानसून की बौछारें ठीक-ठाक पड़ रही हैं। जंगलों में पानी की कमी नहीं है और हरियाली भी खूब है। बावजूद इसके वर्षाकाल में भी हाथी आबादी के नजदीकी जलस्रोतों में आ रहे हैं। सूरतेहाल चिंता बढ़ना लाजिमी है। ये सवाल भी फिजां में तैर रहा कि यदि जंगल में पानी, भोजन की पर्याप्त उपलब्धता है तो हाथियों का आबादी वाले क्षेत्रों में मूवमेंट क्यों बढ़ रहा है। इसे लेकर गहन अध्ययन की दरकार है।
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