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कागजों में सिमटी उत्तराखंड में महाभारत सर्किट बनाने की योजना

देवभूमि उत्तराखंड में महाभारत सर्किट बनाने की योजना कागजों तक सीमित है। सरकार की सुस्त चाल के चलते पर्यटन को बढ़ावा देने के अरमान परवान नहीं चढ़ पा रहे हैं।

By BhanuEdited By: Updated: Fri, 17 Jan 2020 08:54 AM (IST)
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कागजों में सिमटी उत्तराखंड में महाभारत सर्किट बनाने की योजना
देहरादून, विकास गुसाईं। दो सरकारें, तीन साल की मेहनत और नतीजा सिफर। यह हाल है देवभूमि उत्तराखंड में महाभारत सर्किट बनाने की योजना का। सरकार की सुस्त चाल के चलते पर्यटन को बढ़ावा देने के अरमान परवान नहीं चढ़ पा रहे हैं। 

उत्तराखंड के जनजातीय जौनसार बावर क्षेत्र में देहरादून के चकराता, त्यूणी, देववन और लाखामंडल के साथ ही उत्तरकाशी जिले के पुरोला तक महाभारत काल के निशान पसरे हैं। इनको फिर से जीवंत करने के साथ ही इन्हें पर्यटकों की निगाह में लाने के मकसद से राज्य सरकार ने महाभारत सर्किट बनाने का निर्णय लिया। 

वर्ष 2016 में कांग्रेस सरकार के समय इसकी कवायद शुरू हुई। एक विस्तृत प्रस्ताव तैयार किया गया। इसे केंद्र को भेजने से पहले प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हो गया। नए निजाम में नए सिरे से केंद्र को प्रस्ताव भेजा गया। इसे सराहा भी गया। इसके बाद से ही अब प्रदेश की नजरें केंद्र पर टिकी हुई हैं। पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज इसके लिए पैरवी कर चुके हैं लेकिन इस पर अभी तक कोई निर्णय नहीं हो पाया है। 

आकार नहीं ले पाई ट्विन सिटी 

ऋषिकेश और हरिद्वार को ट्विन सिटी बना राष्ट्रीय धरोहर के रूप में विकसित करने की योजना अब समाप्त होती नजर आ रही है। वर्ष 2015 में बनाई गई इस योजना पर वर्ष 2017 में प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बाद कोई काम ही नहीं हुआ। 

दरअसल, 2015 में प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार और केंद्र सरकार ने तीर्थाटन के लिहाज से बेहद अहम हरिद्वार और ऋषिकेश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधाओं से लैस करने का निर्णय लिया था। इन योजनाओं को इस तरह से लागू करना था कि दोनों शहर एक-दूसरे के पूरक नजर आएं। 

इसके तहत दोनों शहरों को मेट्रो ट्रेन से जोडऩे के साथ ही योग केंद्र , साफ सुथरे घाट, बेहतर सड़क व यातायात व्यवस्था और शौचालय तैयार किए जाने थे। इसे केंद्र से स्वीकृति मिलती तब तक सरकार बदल गई। इस योजना के कुछ कार्य अब बंद हो चले हैं और कुछ अन्य योजनाओं के तहत हो रहे हैं। 

मेरा गांव-मेरा धन, मेरा पेड़-मेरा धन

प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन रोकने के लिए पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार द्वारा बनाई गई योजना मेरा गांव-मेरा धन, मेरा पेड़-मेरा धन योजनाएं समय के साथ ही धरातल से गायब हो गई हैं। पूर्ववर्ती सरकार द्वारा इसके लिए बजट की ठोस व्यवस्था न करना और नई सरकार द्वारा इसके औचित्य पर सवाल उठाने के कारण अब इनका कहीं नाम भी नहीं है। 

वर्ष 2015 में तत्कालीन राज्य सरकार ने ये योजनाएं शुरू की थी। इनका मकसद खाली हो रहे गावों को आबाद करना और प्रवासी व स्थानीय निवासियों को गांव में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना था। इसमें गांवों में पौधा रोपण करने और भवन बनाना भी प्रस्तावित किए गए। उस समय जिलों में इन योजनाओं को धरातल पर उतारने के लिए खूब बैठकें व चर्चाएं हुई, थोड़ा बहुत काम भी हुआ, मगर चुनावी वर्ष में पहुंचते-पहुंचते ये दोनों योजनाएं भी चुनावी वादों की तरह गायब हो गईं। 

दम तोड़ती चारधाम की चट्टियां योजना

पुरातन काल में चलने वाली पैदल यात्रा के रोमांच का सपना फिलहाल नींद में ही चल रहा है। विभाग द्वारा पैदल यात्रा के ठहराव स्थलों, यानी चट्टियों के इतिहास से रूबरू कराने की योजना फाइलों से बाहर नहीं निकल पाई है। दरअसल, प्राचीन काल में उत्तराखंड की चारधाम यात्रा को छोटी चारधाम यात्रा अथवा हिमालयी चारधाम यात्रा कहा जाता था। 

यातायात के उचित साधन न होने के कारण श्रद्धालु पैदल ही चारधाम यात्रा करते थे। इसकी शुरुआत ऋषिकेश के निकट मोहन चट्टी से होती थी। मार्ग काफी दुरुह था, इस कारण यात्री इन मार्ग पर जगह-जगह चट्टियों पर ठहरते थे। हर धाम तक पहुंचने के लिए कई चट्टियां हुआ करती थीं। 

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वर्तमान में यात्रा बेहद सुगम हो गई है। ऐसे में सरकार ने यात्रा का रोमांच बढ़ाने की एक अच्छी योजना बनाई। अफसोस यह कि ढंग से कार्य न होने के कारण यह शुरुआती चरण में ही दम तोड़ती नजर आ रही है।

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