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लाला जमुनादास भगत की देन है देहरादून की रामलीला, ऐसे हुई इसकी शुरुआत

देहरादून में रामलीला मंचन की शुरुआत वर्ष 1868 में लाला जमुनादास भगत ने श्री रामलीला कला समिति का गठन कर किया। यह सिलसिला आज भी बदस्तूर चला आ रहा है।

By Sunil NegiEdited By: Updated: Tue, 24 Sep 2019 01:06 PM (IST)
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लाला जमुनादास भगत की देन है देहरादून की रामलीला, ऐसे हुई इसकी शुरुआत
देहरादून, दिनेश कुकरेती। दून में रामलीला मंचन की शुरुआत 151 साल पहले श्री रामलीला कला समिति ने की थी। वर्ष 1868 में लाला जमुनादास भगत ने उक्त रामलीला समिति का गठन किया था। मूलरूप से देवगन, सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) निवासी लाला जमुनादास भगत का परिवार लगभग 200 वर्ष पहले दून आया और फिर यहीं का होकर रह गया। वर्ष 1850 में जन्मे लाला जमुनादास शुरू से आध्यात्मिक प्रकृति के थे। युवावस्था में पहुंचने पर उन्हें यह बात बहुत अखरी कि दून में कहीं भी ऐसा आयोजन नहीं होता, जो श्रीराम के चरित्र एवं उनके जीवन से लोगों को परिचित कराए। सो, वर्ष 1868 में महज 18 वर्ष की आयु में उन्होंने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर श्री रामलीला समिति का गठन किया और इसी वर्ष दून में पहली बार रामलीला का मंचन किया। यह सिलसिला आज भी बदस्तूर चला आ रहा है।

रामलीला का पहली बार मंचन कब और कैसे हुआ, इस बारे में ठीक-ठीक कह पाना संभव नहीं है, लेकिन इतिहासविदों का अनुमान है कि देश में मंचीय रामलीला की शुरुआत 16वीं सदी में हुई। 18वीं सदी के मध्यकाल तक रामलीला उत्तराखंड पहुंच चुकी थी। बताते हैं कि कुमाऊं में पहली रामलीला तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर स्व. देवीदत्त जोशी के सहयोग से 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मंदिर में हुई थी। इसी तरह यूनेस्को की धरोहर बन चुकी पौड़ी की रामलीला का भी उत्तराखंड में विशिष्ट स्थान है। पारसी थियेटर शैली और राग-रागनियों पर आधारित इस रामलीला का वर्ष 1897 में स्थानीय लोगों के प्रयास से पौड़ी के कांडई गांव में पहली बार मंचन हुआ था। इसे वृहद स्वरूप देने का प्रयास वर्ष 1908 से भोलादत्त काला, अल्मोड़ा निवासी तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक पूर्णचंद्र त्रिपाठी, 'क्षत्रिय वीर' के संपादक कोतवाल सिंह नेगी व साहित्यकार तारादत्त गैरोला ने किया। विद्वतजनों के जुड़ने के कारण पौड़ी की रामलीला को एक नया स्वरूप मिला और आने वाले सालों में जहां रामलीला के मंचन में निरंतरता आई, वहीं इसमें अनेक विशिष्टताओं का समावेश होता भी चला गया।

राम भक्तों की दृष्टि में रामलीला का मंचन अनादि काल से होता आ रहा है। कहते हैं कि त्रेता युग में श्रीराम के वनागमन के बाद अयोध्यावासियों ने 14 वर्ष की वियोगावधि राम की बाल लीलाओं का अभिनय कर बिताई थी। तभी से यह परंपरा प्रचलन में आई। ऐसा भी कहते हैं कि रामलीला के आदि प्रवर्तक मेघा भगत थे। माना जाता है कि वे काशी के कतुआपुर मुहल्ले में फुटहे हनुमान के पास रहा करते थे। कुछ लोगों के मतानुसार रामलीला की अभिनय परंपरा के प्रतिष्ठापक स्वयं गोस्वामी तुलसीदास हैं। उन्होंने हिंदी में जन मनोरंजनकारी नाटकों का अभाव पाकर रामलीला की शुरुआत की। ऐसी भी धारणा है कि 1500 ईस्वी में गोस्वामी तुलसीदास ने जब आम बोलचाल की भाषा 'अवधी' में श्रीराम के चरित्र को 'रामचरितमानस' में चित्रित किया तो इस महाकाव्य के माध्यम से देशभर, खासकर उत्तर भारत में रामलीला का मंचन किया जाने लगा। तुलसीदास के शिष्यों ने शुरुआती रामलीला का मंचन काशी, चित्रकूट और अवध में किया था।

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दक्षिण-पूर्व एशिया तक रामलीला का आकर्षण

दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में रामलीला मंचन के कई प्रमाण मिलते हैं। जावा के सम्राट वलितुंग के 907 ईस्वी के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है, जिसके अनुसार सिजालुक ने उपर्युक्त अवसर पर नृत्य और गीत के साथ रामायण का मनोरंजक प्रदर्शन किया था। थाई नरेश बोरमत्रयी (ब्रह्मत्रयी) लोकनाथ की राजभवन नियमावली में रामलीला का उल्लेख है। इसकी तिथि 1458 ईस्वी है। बर्मा का राजा 1767 ईस्वी में स्याम (थाईलैंड) को पराजित करने के बाद अन्य बहुमूल्य सामग्री के साथ रामलीला के कलाकारों को भी बर्मा ले गया था। इसके बाद बर्मा के राजभवन में भी रामलीला का मंचन होने लगा। माइकेल साइमन्स ने यहां 1795 ईस्वी में राम नाटक देखा था। कंपूचिया में रामलीला मंचन को 'ल्खोनखोल' (बंदरों का नाटक), थाइलैंड में 'खौन' व 'नंगयाई', दक्षिणी थाईलैंड में 'नंग तुलुंग', म्यांमार में 'यामप्वे' व जापान में 'वेयांग' नाम से जाना जाता है।

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