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उत्तराखंडी लोक में रच-बस गया स्कॉटलैंड का बैगपाइपर, पढ़िए पूरी खबर

स्कॉटलैंड का बैगपाइपर उत्तराखंडी लोक में इस कदर समा गया मानो यहीं जन्मा हो। बैगपाइपर के बिना अब उत्तराखंड के लोकवाद्यों की सूची अधूरी-सी लगती है।

By Sunil NegiEdited By: Updated: Sat, 04 Jan 2020 03:23 PM (IST)
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उत्तराखंडी लोक में रच-बस गया स्कॉटलैंड का बैगपाइपर, पढ़िए पूरी खबर
देहरादून, जेएनएन। ब्रिटिश हुकूमत के दौर में जिस बैगपाइप को अंग्रेज स्कॉटलैंड से यहां लेकर आए थे, वह मशकबीन (मशकबाजा, बीनबाजा, मोरबीन) के रूप में उत्तराखंडी लोक में इस कदर समा गया, मानो यहीं जन्मा हो। बैगपाइप स्कॉटलैंड का राष्ट्रीय वाद्य है, लेकिन इसके बिना अब उत्तराखंड के लोकवाद्यों की सूची अधूरी-सी लगती है। मांगलिक आयोजनों में ढोल-दमाऊ के साथ अगर मशकबीन न हो तो संगत को पूर्णता ही नहीं मिलती। वादक जब मशकबीन में 'बेडू पाको बारामासा', 'टक-टका-टक कमला', 'कैले बजे मुरूली ओ बैणा ऊंची-ऊंची डान्यूं मा' जैसे लोकगीतों की धुन बजाता है तो कदम खुद-ब-खुद थिरकने लगते हैं।

सबसे पहले प्रथम विश्व युद्ध में गए सैनिकों ने सीखी थी यह कला

बैगपाइप को ब्रिटिश फौज सबसे पहले 19वीं सदी में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में लेकर आई थी। लेकिन, इसे लोकप्रियता मिली 20वीं सदी में। दरअसल, प्रथम विश्व युद्ध में हिस्सा लेने गए गढ़वाली-कुमाऊंनी सैनिकों ने वहां बैगपाइप बजाना सीखा और इस कला को अपने साथ यहां ले आए। दूसरे विश्वयुद्ध में भी कई गढ़वाली सैनिकों को बैगपाइप बजाने का प्रशिक्षण दिया गया। इन्हीं सैनिकों ने फौज से घर आने के बाद मशकबीन के रूप में इस वाद्य को शादी-ब्याह जैसे समारोहों का हिस्सा बनाया। बाद में भारतीय सेना में मशकबीन के शामिल होने से इसका आकर्षण और बढ़ गया। धीरे-धीरे यह वाद्य उत्तराखंडी लोक संस्कृति की पहचान बन गया।

दिखता है अंग्रेजों की सिखलाई का असर

आज भी मशकबीन की सुर-लहरियों में अंग्रेजों की सिखलाई का असर स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। सुदूर पर्वतीय अंचल में पुराने वादकों को मशकबीन पर स्कॉटिश धुनें बजाते हुए सुना जा सकता है। हालांकि, उन्हें इसका इल्म नहीं रहता कि वे कहां की धुन बजा रहे हैं। खैर! मशकबीन का मूल कहीं भी हो, लेकिन जिस तरह से इसे बजाने की कला उत्तराखंड में पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती चली गई, उसने इसे उत्तराखंड के लोकवाद्य के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।

मशकबीन ने पूरी की फूंक से बजने वाले सुरीले वाद्य की कमी

लोकसंगीत के जानकार बताते हैं कि उत्तराखंड के परंपरागत वाद्य समूह में ढोल-दमाऊ, नगाड़ा, डमरू, थाली, हुड़का आदि तो शामिल थे, लेकिन फूंक से बजने वाला कोई सुरीला वाद्य नहीं था। मशकबीन ने सुरों ने इस कमी को पूरा किया। आज कुमाऊं में छोलिया नृत्य और गढ़वाल में पौणा नृत्य में नाचने वालों की कदमताल की खूबसूरती मशकबीन की धुनों से और बढ़ जाती है। विवाह जैसे मांगलिक आयोजनों से लेकर पर्व, त्योहार, कौथिग आदि उल्लास के मौकों पर इसके सुर रस घोल देते हैं। 

सियालकोट की मशकबीन का जवाब नहीं

देश में मेरठ और जालंधर में मशकबीन की कई फैक्ट्रियां हैं। एक मशकबीन पर एक हजार से साढ़े चार हजार रुपये तक की लागत आती है। हालांकि, आज भी सबसे बेहतर मशकबीन पाकिस्तान के सियालकोट में बनाई जाती हैं। लेकिन, उत्तराखंड में मेरठ और जालंधर की मशकबीन का ही बोलबाला है।

युवा गुरु-शिष्य परंपरा में ले रहे मशकबीन का प्रशिक्षण 

उत्तराखंड संस्कृति विभाग की ओर से लोकवाद्यों के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए गुरु-शिष्य परंपरा योजना शुरू की गई है। मशकबीन भी इस योजना का हिस्सा है। अच्छी बात यह है कि इस योजना के तहत कई युवा कलाकार वरिष्ठ कलाकारों से मशकबीन का प्रशिक्षण ले रहे हैं।

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पांच पाइपों वाला सुषिर वाद्य है मशकबीन

मशकबीन एक वायु वाद्य (सुषिर वाद्य) है। इसे फूंक की सहायता से बजाया जाता है। इसमें पांच पाइप होते हैं। इनमें से एक पाइप के जरिये चमड़े की मशक में फूंक मारकर हवा भरी जाती है। छिद्र वाले दूसरे पाइप (चंडल) को दोनों हाथों की अंगुलियों से नियंत्रित किया जाता है। जबकि, कंधे पर रखे जाने वाले अन्य तीन पाइपों से मधुर ध्वनि प्रस्फुटित होती।

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