सत्ता के गलियारे से : 20 वीं सालगिरह मुबारक उत्तराखंड
देखते-देखते उत्तराखंड आज 20 साल का हो गया। इस दौरान एक अंतरिम और चार निर्वाचित सरकारों को देख चुका है सूबा। नौ नवंबर 2000 को शुरुआत भाजपा से हुई संयोगवश आज भी भाजपा ही राज कर रही है। मौजूदा त्रिवेंद्र सरकार अब तक की सबसे स्थिर सरकार साबित हुई है।
By Sunil NegiEdited By: Updated: Mon, 09 Nov 2020 08:14 AM (IST)
देहरादून, विकास धूलिया। लीजिए, देखते-देखते अपना उत्तराखंड आज 20 साल का हो गया। इस दौरान एक अंतरिम और चार निर्वाचित सरकारों को देख चुका है सूबा। नौ नवंबर, 2000 को शुरुआत भाजपा से हुई, संयोगवश आज भी भाजपा ही राज कर रही है। सियासी सेहत के नजरिए से देखें तो मौजूदा त्रिवेंद्र सरकार अब तक की सबसे स्थिर सरकार साबित हुई है। नारायण दत्त तिवारी अब तक के नौ में से अकेले मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, ज्यादातर ढाई साल में ही निबट लिए। तिवारी के बाद अब त्रिवेंद्र ही पांच साल के कार्यकाल को पूरा करने की ओर बढ़ रहे हैं। हालांकि एक बड़ा अंतर यह है कि तिवारी को पांच साल में कई दफा अपनी पार्टी में गुटबाजी से जूझना पड़ा, त्रिवेंद्र साढ़े तीन साल से बगैर चुनौती नेतृत्व कर रहे हैं। अब 70 में से 57 सीटों पर काबिज हैं, इतना तो हक बनता ही है।
रास नहीं आ रही रीति-नीति
साल 2016 में कांग्रेस को झटका देकर 10 विधायकों ने भाजपा का दामन थामा था, लेकिन अब इनमें से ज्यादातर खुद को असहज पा रहे हैं। दिलचस्प यह कि भाजपा ने कमिटमेंट निभाते हुए इन्हें पूरा मान दिया, सभी को विधानसभा पहुंचने का रास्ता दिखाया, टिकट दिया। एक-दो को छोड़कर बाकी पहुंच भी गए। पांच मंत्री भी बने, लेकिन इन्हें रास नहीं आ रही भाजपा की रीति-नीति। दो कैबिनेट मंत्री और एक राज्य मंत्री अलग-अलग कारणों से अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। अब यह बात दीगर है कि सरकार और पार्टी संगठन ने इन्हें कोई तवज्जो नहीं दी। एक कैबिनेट मंत्री का तो आलम यह है कि इनके खिलाफ स्पेशल ऑडिट का आदेश दे दिया गया। हालांकि मंत्रीजी खासे दबंग हैं, लेकिन नियम-कायदे भी तो अपनी जगह हैं। एक अन्य मंत्री, अफसर से नहीं बनी तो मामला पुलिस तक जा पहुंचा। मुख्यमंत्री ने जांच बिठाई, तब जाकर पटाक्षेप हुआ।
सियासत नहीं, विवादों के चैंपियनसियासत का एक जाना-पहचाना चेहरा हैं कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन। हरिद्वार जिले से विधायक हैं। निर्दलीय चुनाव जीते, कांग्रेस में गए, तो भी जीत हासिल की। चार साल पहले कांग्रेस का हाथ झटक कमल पकड़ा, तब भी चुनाव जीतने में कोई दिक्कत नहीं हुई। यह सब तो ठीक, मगर ये जनाब खुद विवादों को आमंत्रण देने का शौक पाल बैठे हैं। अकसर मूंछ पर ताव देते दिखते हैं। खिलाड़ी रहे हैं तो भिडऩा सामान्य सी बात। पिछले साल एक टिप्पणी ऐसे कर दी, जो सबको नागवार गुजरी। नतीजतन, पार्टी ने छह साल के लिए बाहर का रास्ता दिखा दिया। हालांकि एक साल में ही वापसी का टिकट भी थमा दिया। अब अपनी ही पार्टी के कार्यकत्र्ता को फोन पर कुछ ऐसे अंदाज में समझा रहे थे कि ऑडियो वायरल होते देर न लगी। वह तो समय पर बात समझ आ गई, माफी मांग विवाद खत्म करने की पहल कर दी।
क्या चलेगी सपा की साइकिलविधानसभा चुनाव नजदीक हैं, तो सियासी पार्टियां तैयारी में जुट गई हैं। समाजवादी पार्टी ने भी नींद त्याग अपनी साइकिल की झाड़पोंछ शुरू कर दी। हाल ही में पार्टी ने प्रदेश संगठन की नई टीम का एलान किया, लेकिन इसकी पहली ही बैठक में जो बवाल हुआ, उससे साफ हो गया कि इनका कुछ नहीं होने वाला। दरअसल, सपा उत्तराखंड के अलग राज्य बनने से पहले अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय इस क्षेत्र में भी पैर जमा चुकी थी। कई पर्वतीय जिलों से सपा के विधायक चुने गए, मगर जैसे ही उत्तराखंड अलग राज्य बना, साइकिल की हवा ही निकल गई। चार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, मगर सपा एक भी सीट आज तक जीत नहीं पाई। यह स्थिति तब है, जब दो मैदानी जिलों, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर में पार्टी का ठीकठाक वोट बैंक है। यह बात दीगर है कि इस पर अब बसपा कब्जा जमाकर बैठ गई है।
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