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खत्म होती जा रही देवभूमि की सांस्कृतिक विरासत और मंदिरों की निर्माण शैली

आधुनिकता की बयार में अब पुरातात्विक महत्वाली धरोहरें धीरे धीरे विलुप्त होती जा रही है। विशुद्ध पर्वतीय शैली के बजाय अब कंकड़ सीमेंट व सरियों के ढांचे में खड़े मंदिर भवन देखने में आकर्षक जरूर लगें लेकिन बेजोड़ शिल्पकला अपनी अलग पहचान रखती हैं।

By Skand ShuklaEdited By: Updated: Thu, 26 Nov 2020 04:57 PM (IST)
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खत्म होती जा रही देवभूमि की सांस्कृतिक विरासत मंदिरों की निर्माण शैली

अल्मोड़ा, जेएनएन : देवभूमि उत्तराखंड की सहस्त्रों वर्ष पुरानी संस्कृति का दीदार यहां पग पग पर बने मंदिर करवाते हैं। स्थापत्य कला के ये बेजोड़ नमूने बेशक पुराने या जर्जर हालत में पहुंच गए हैं। मगर इनमें मौजूद जीवंत कलाकृतियां पहाड़ के सदियों पुराने मूर्ति विज्ञान से हमें रूबरू कराता है। विशिष्ट एवं अनूठी स्थापत्य कला के संरक्षण की लचर नीति ही कहेंगे कि आधुनिकता की बयार में अब पुरातात्विक महत्वाली धरोहरें धीरे धीरे विलुप्त होती जा रही है। विशुद्ध पर्वतीय शैली के बजाय अब कंकड़ सीमेंट व सरियों के ढांचे में खड़े मंदिर भवन देखने में आकर्षक जरूर लगें लेकिन बेजोड़ शिल्पकला अपनी अलग पहचान रखती हैं।

उत्तराखंड में गुफाचित्र, अलंकृत शैलखंड, वेदिकाएं, शवाधान आदि मानव इतिहास के विकास को अभिव्यक्त करते हैं। इसके बाद निर्मित मंदिरों में यह शिल्पकला विकसित होती गई। कत्यूरकाल (8वीं से 14वीं सदी) के दौरान उत्तराखंड में जगह जगह मंदिरों, नौलों, अभिलेखों आदि के जरिये स्थापत्य कला अपनी चरम पर रही। इसके पश्चात चंदवंशीय राजाओं ने भी इस ओर अनेकों प्रयास किए। नागर, रूचक, पीढ़ा प्रसाद आदि शैलियों में निर्मित इन मंदिरों की बनावट, उकेरी गई कलाकृतियां आज भी देश विदेश के पर्यटकों के लिए उत्सुकता व गहन शोध के अद्भुत स्थल हैं।

पुरातन काल के अद्भुत अभिलेख भी हैं

शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर यहां तक कि बौद्ध व जैनधर्म से जुड़ी मूर्तिया व मंदिर पुरातन काल के अद्भुत अभिलेख हैं। मगर अफसोस कि पहाड़ी शैली के ये मंदिर अब अवशेष मात्र रह गए हैं। ऐसा भी नहीं कि इन मंदिरों के क्षरण से उत्तराखंड मंदिर विहीन हो चला है। आस्था के बढ़ते प्रवाह के बीच आधुनिक शैली मंदिर निर्माण का चलन उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। मगर प्राचीन स्थापत्यकला की भांति वह जींवतता नदारद है।

तब हमेशा के लिए खो देंगे अनूठी प्रस्तर शैली

समृद्ध एवं विशिष्ट पर्वतीय स्थापत्यकला को समय रहते संरक्षित कर बढ़ावा न दिया गया तो बहुत जल्द हम इस अनूठी प्रस्तरशैली के निर्माण की कला को खो देंगे। देवभूमि की जिस विशिष्ट सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक विरासत देश दुनिया में विशिष्टï पहचान दिलाती आई है, उसे बचाने के लिए राज्य सरकार भी संजीदा नजर नहीं आ रही। चूंकि देवभूमि देवताओं, ऋषि मुनियों व तपस्वियों की तपोस्थली रही है। हरिद्वार तीर्थनगरी, पवित्र बद्रीनाथ धाम से लेकर कैलाश तक लाखों  देवताओं का वास है। इनकी पहचान यहां के विशिष्टï शैली में यह मंदिर ही हैं, जो उपेक्षा के कारण अपना स्वरूप खोती जा रही हैं।

योजनाकारों का ध्यान नहीं 

पहाड़ में निर्मित मंदिर धर्म विधि पूर्वक, विष्णु धर्मोत्तर पुराण व शिल्पशास्त्र के अनुसार ही बनाए जाते रहे हैं। यही खासियत मंदिरों के मूल अस्तित्व को बचाए रखती है। मगर वर्तमान योजनाकार या निर्माणकर्ता इस ओर ध्यान नहीं दे रहे। आलम यह है कि सांसद व विधायक निधि से बनने वाले मंदिरों व देवालयों को पुरानी शैली में बनाने की जरूरत नहीं समझी जा रही।

नागर शैली की झलक ज्यादा है

पहाड़ी शैली में बने उत्तराखंड के मंदिरों में नागर शैली की झलक साफ दिखती है। खालिस पत्थरों से तैयार मंदिर के पूरे ढांचे में मिट्टी, उड़द (दाल), गोंद, पनीर आदि के मिश्रण यानी गारे का इस्तेमाल होता था। हालांकि अब इनकी जगह रेता, बजरी, ईंट, टाइल्स व मार्बल वगैरह ने ले ली है। यह आधुनिक शैली बेशक खर्चीली है। मोटी रकम खर्च की जाती है। मगर खूबसूरती तो पुरानी शैली में ही है।

पहाड़ी शैली का संरक्षण बेहद जरूरी

निदेशक हिमालयन सोसाइटी फार हेरिटेज एंड आर्ट कंर्जवेशन संस्था अनुपम साह कहते हैं कि समय रहते ऐतिहासिक धरोहरें नहीं बचाई गई तो हम अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत व पहचान को हमेशा के लिए खो देंगे। इस शैली के संरक्षण को युद्धस्तर पर कार्ययोजना बनानी होगी। इसके लिए समेकित प्रयास की जरूरत है तो सरकारों को भी गंभीर रुख अपनाना होगा। अनूपम साह वर्तमान में इंग्लैंड, इटली, दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में प्राचीन सांस्कतिक धरोहरों व हस्तशिल्पों के संरक्षण का कार्य कर रहे हैं।

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