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बागेश्वर में 40 साल बाद गूंजे लोक गीत हुड़किया बौल के स्वर, अनूठी है लोक गीतों की परंपरा

उत्तराखंड में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही है। हुड़किया बौल इसमें प्रमुख है। खेती और सामूहिक श्रम से जुड़ी यह परंपरा सिमटती कृषि के साथ ही कम होती चली गई।

By Skand ShuklaEdited By: Updated: Sun, 19 Jul 2020 08:33 AM (IST)
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बागेश्वर में 40 साल बाद गूंजे लोक गीत हुड़किया बौल के स्वर, अनूठी है लोक गीतों की परंपरा
हल्द्वानी, गणेश पांडे  : उत्तराखंड में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही है। हुड़किया बौल इसमें प्रमुख है। खेती और सामूहिक श्रम से जुड़ी यह परंपरा सिमटती कृषि के साथ ही कम होती चली गई। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि अधिकांश इलाकों में हुड़किया बौल की परंपरा समाप्त हो चुकी है। आज हुड़किया बौल गायकी वाले कलाकारों को खोजना मुश्किल है। ऐसे मुश्किल समय में बागेश्वर जिले के 22 वर्षीय भास्कर भौर्याल ने हुड़किया बौल परंपरा के साथ आंचलिक लोक गायकी की एक विधा को जीवंत करने का बीड़ा उठाया है। बागेश्वर के रीमा क्षेत्र में 40 साल बाद सुनाई दे रहे हुड़किया बौल के बोल सकारात्मक बदलाव की उम्मीद जगा रहे हैं।

बागेश्वर जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर कुरौली गांव के रहने वाले भास्कर सोबन सिंह जीना कैंपस अल्मोड़ा से फाइन आर्ट की पढ़ाई कर रहे हैं। मां जानकी देवी आंचलिक लोक गायकी की विधा न्योली गाती थीं। बचपन से मां को सुनते हुए भास्कर को भी इसका शौक पैदा हो गया और हुड़का लोक वाद्य थाम लिया। पढऩे व कविता रचने के शौकीन भास्कर ने इंटरनेट पर अपने लोक गायकी के बारे में पढ़ा। भास्कर बताते हैं कि हाथ में हुड़का लिए बुजुर्ग के साथ स्वर से स्वर मिलाते हुए सामूहिक रूप से धान की रोपाई लगाने की कल्पना ने इसे सीखने की जिज्ञासा जगा दी। मां के साथ पास के गांव में अपने ननिहाल जाना हुआ। वहां एक बुजुर्ग कलाकार धर्म सिंह रंगीला से मिलना हुआ तो हुड़किया बौल की बारीकी सीखी। सीखने की चाहत में अक्सर ननिहाल चले जाया करते। तीन साल पहले रंगीला का निधन हुआ तो भास्कर ने ठान लिया कि इस परंपरा को अब वह खुद आगे बढ़ाएंगे।

यह है हुड़किया बौल

हुड़किया बौल हुड़का व बौल शब्द से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है कई हाथों का सामूहिक रूप से कार्य करना। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की रोपाई व मडुवे की गोड़ाई के समय हुड़किया बौल गाए जाते हैं। पहले भूमि के देवता भूमियां, पानी के देवता इंद्र, छाया के देव मेघ की वंदना से शुरुआत होती है। फिर हास्य व वीर रस आधारित राजुला मालूशाही, सिदु-बिदु, जुमला बैराणी आदि पौराणिक गाथाएं गाई जाती हैं। हुड़के को थाम देता कलाकार गीत गाता है, जबकि रोपाई लगाती महिलाएं उसे दोहराती हैं। हुड़के की गमक और अपने बोलों से कलाकार काम में फुर्ती लाने का प्रयास करता है। 

यह कहते हैं भास्कर

युवा बौल गायक भास्कर भौर्याल ने बताया क कुमाऊं के लोक का अतीत अत्यंत समृद्ध रहा है। लोक गीतों के ही कई आयाम हैं। लोकगीतों को इतने सलीके से तरासा गया है कि इनमें जीवन का सार दिखता है। पेसेवर बौल गायकों के बराबर मैं कभी नहीं जा सकता, मगर अपनी पुरातन विरासत को संरक्षित करने और उसे नई पीढ़ी तक ले जाने का प्रयास सभी को करना चाहिए। मैं यही कर रहा हूं। 

ऐसे होते हैं हुड़किया बौल के स्वर

सेलो दिया बितो हो धरती माता

दैंणा है जाया हो भुमियां देवा

दैंणा है जाया हो धरती माता 

हैंणा है जाया हो पंचनाम देवा

सेवो द्यो बिदो भुम्याल देवा..। 

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