पहाड़ के परंपरागत वाद्य यंत्र हुड़का को सहेज रहे बांसुरी वादक मोहन जोशी
मोबाइल टीवी इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में हर चीज बदल रही है। परंपरा और लोक संस्कृति से युवा पीढ़ी को दूर करती जा रही है।
मोहन जोशी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। अपनी उत्कृष्ट बांसुरी वादन प्रतिभा की वजह से मोहन जोशी का नाम उत्तराखंड के साथ देश-विदेश में भी है। करीब दो साल पहले किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में हुड़का वादन के समय उनके दिमाग में अपनी लुप्त होती परंपरा को जीवित रखने का ख्याल आया। उन्होंने कुछ जरूरी चीजें एकत्र कर खुद हुड़का बनाने और इसे सही कद्रदानों तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है।
हुड़का बागेश्वर की खास पहचान
बांसुरी वादक मोहन जोशी खुद हुड़का भी बजाते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में तक वे हुड़का ले गए। उन्हें अब हुड़के का बाजार भी मिल गया है। वे लखनऊ, दिल्ली, मुंबई और छत्तीसगढ़ तक हुड़का पार्सल के जरिए भेज रहे हैं। लेकिन कोरोना वायरस से व्यापार प्रभावित किया है। बाजवूद उनके पास हुड़का डिमांड है।
कैस बनता है हुड़का
हुड़के की नाल खिन के पेड़ की हल्की लकड़ी से बनती है। ये पेड़ कपकोट के मल्ला दानपुर घाटी में मिलता है। मैदानी इलाकों में बेर के पेड़ के तने से भी नाल बनती है। थाप बकरे की आंत से बनता है। इसके अलावा किसी मरे जानवर की पतली खाल से भी तैयार हो सकता है।
कुंडल ऐसे बनते
बेंत की लकड़ी से इसके साइज के कुंडल बनाए जाते हैं। जिसमें खाल को सेट किया जाता है। और यह कुंडल हुड़के को कसने के काम आते हैं और हुड़का जितना कसा जाएगा, उसकी आवाज उतनी बेहतर होते जाती है।
हुड़का की बढ़ रही है डिमांड
हुड़का वादक मोहन चंद्र जोशी ने बताया कि दो साल पहले से हुड़का बना रहा हूं। तीन हजार रुपये लागत आ रही है। एक दर्जन हुड़के दूसरे राज्यों में पार्सल के जरिए भेजें हैं। डिमांड लगातार बढ़ रही है। हुड़का उद्योग लगाने की सोच रहा हूं। कोरोना वायरस संक्रमण के बाद काम को बढ़ाने की कोशिश होगी।