जिस पेड़ के नाम पर बसी हल्द्वानी अब वन विभाग ने तैयार की उसकी वाटिका
कुमाऊं का गेटवे हल्द्वानी। कभी छोटा सा कस्बा हुआ करता था जहां हल्दू के पेड़ बहुतायत में थे। माना जाता है कि इन्हीं पेड़ों की वजह से इस शहर का नाम हल्द्वानी पड़ा। प्राचीन समय में इस नगर को हल्दीवन व हल्दूवन के नाम से जानते थे।
जब पेड़ खुद ही उग जाया करता था
एक समय था, जब यह पेड़ खुद ही उग जाया करता था, लेकिन अब इस पेड़ के बीज जमीन में गिरते भी हैं तो पर्याप्त नमी नहीं होने के चलते अंकुरित नहीं हो पाते। वन अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बिष्ट बताते हैं, अब जमीन में पहले की जैसी नमी नहीं रह गई। इसलिए यह पेड़ नहीं उग पाता। हल्दू का बीज बहुत बारीक होता है। एक किलो बीज में करीब एक करोड़ दाने होते हैं।
110 फिट ऊंचा होता था पेड़
बिष्ट बताते हैं, पेड़ की ऊंचाई 110 फिट और चौड़ाई 20 फिट तक देखी गई है। इसकी लकड़ी फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसका वानस्पतिक नाम हल्डिना कार्डीफोलिया है।
जैव विविधता के लिए भी उपयोगी
हल्दू का यह पेड़ जैव विविधता के लिए बेहद उपयोगी है। सामान्य पेड़ों की अपेक्षा यह पेड़ कई गुना अधिक शुद्ध हवा देता है। इसमें पक्षियों अपना आवास बनाती हैं। लंगूर, बंदर, गिद्दों व चील भी इस पेड़ में बैठा करते हैं। पत्तियां चारे के लिए उपयोग में लाई जाती हैं और टहनियां जलाने के काम आती हैं।
2017 में मोटाहल्दू में काटा था विशाल पेड़
मोटाहल्दू में हल्दू का बहुत पुराना पेड़ था। सड़क चौड़ीकरण के चलते यह पेड़ भी विकास की भेंट चढ़ गया। इसके अलावा अधिकांश पेड़ आबादी बढऩे के चलते कट गए तो तमाम पेड़ों को माफियाओं ने ही काट डाला। अब गिने-चुने ही पेड़ बच गए।
वन क्षेत्रों के अलावा स्कूल परिसरों में रोप रहे पौधे
वन अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बताते हैं, हल्दू पेड़ का महत्वा देखते हुए इसे संरक्षित करना शुरू कर दिया है। वाटिका में पौधालय तकनीक विकसित की है। बीज अंकुरित करने के साथ ही वर्धी प्रजनन अथवा वानस्पतिक पुनरोत्थान के माध्यम से पौध तैयार करने शुरू कर दिए हैं। स्कूल परिसर, वन क्षेत्रों, सार्वजनिक स्थानों में रोपण किया जाने लगा है। इन पौधों को हल्द्वानी के अलावा दिल्ली, उत्तर प्रदेश को भी भेजा जाने लगा है।