इतिहासकार डॉ शेखर पाठक बोले- हिमालयी राज्यों में आधार संसाधनों से खुलेगी कोरोना के बाद की राह
हिमालयी मामलों के जानकार इतिहासकार डॉ शेखर पाठक का कहना है कि हिमालयी राज्यों के लिए कोरोना के बाद की राह अपने आधारभूत संसाधन के बलबूते ही खुल सकती है। सरकार इस पर काम करे।
By Skand ShuklaEdited By: Updated: Sat, 23 May 2020 10:21 AM (IST)
हल्द्वानी, गणेश पांडे : वैश्विक महामारी कोरोना ने पूरे देश के साथ उत्तराखंड के लिए भी नई चुनौती पेश की है। पहाड़ लौट चुके व लौटने को आतुर दो लाख प्रवासियों को आजीविका मुहैया कराना समय की सबसे बड़ी जरूरत है। यह काम भले सरकार को करना है, लेकिन सामाजिक चिंतक व इतिहासकार भी मंथन में जुटे हैं। इतिहासकार डॉ. शेखर पाठक का कहना है कि जल, जंगल, जमीन जैसे आधार संसाधन ही हिमालयी राज्यों का उद्धार व हिफाजत कर सकते हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल में इतिहास के पूर्व प्रोफेसर व पहाड़ संस्था के संस्थापक पद्मश्री डॉ. शेखर पाठक का कहना है कि प्राकृतिक सौंदर्य, शिखर, झरने, वनस्पति, नदी, बुग्याल, ग्लेशियर, जंगल, जीव-जंतु आदि प्राकृतिक घटक हिमालयी राज्यों की मुख्य परिसंपत्तियां हैं। जिसे देखने विश्वभर से लोग आते हैं। वन्यता व सांस्कृतिक विविधता हिमालय का मुख्य आधार है।
समुदाय आधारित पर्यटन की जरूरत
हिमालयी जनजीवन, संस्कृति आदि पर गहरा अध्ययन करने वाले डॉ पाठक 1974 से हर दशक में अस्कोट-आरोकोट पदयात्रा करते आ रहे हैं। डॉ पाठक का कहना है कि हमें नवाचारी बदम बढ़ाने होंगे। जमीन को अपनी जरूरत के अनुरूप उत्पादन के लायक बनाना होगा। जमीन, जंगल व पशुधन को आजीविका से जोडऩे के ईमानदार प्रयास करने होंगे। समुदाय आधारित पर्यटन (सीबीटी) की बुनियाद तैयार करनी होगी, ताकि हमारा समाज अपनी शर्तों पर हिस्सेदारी निभा सके। प्रदूषण के लिहाज से सुरक्षित समझे जाने वाले आईटी उद्यम स्थापित हो सकते हैं। पावर ऑफ ऑर्गेनिक के सपने को साकार किया जा सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऑर्गेनिक का सपना सरकारों के स्लोगन देने से नहीं बल्कि जानवर, इंसान और जमीन के बीच संबंध स्थापित करने से होगा। कृषि, बागवानी, फूलों की खेती आदि को नया आयाम दिया जा सकता है। डॉ. पाठक कहते हैं कि ग्रास रूट पर काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, प्रशासक, सोशल एक्टिविस्ट आदि के साथ संवाद कायम करके आगे की राह निकाली जा सकती है, क्योंकि धरातल पर काम कर रहीं संस्थाओं के पास तमाम तजुर्बे भरे पड़े हैं। किसी छोटे स्थान के सफल अनुभवाें को बड़े स्तर पर लागू किया जा सकता है। इतिहास के अनुभव बताते हैं कि किसी एक के विचार को बड़े वर्ग पर थोपने से चीजें बेहतर नहीं हो सकती।
महामारी से भरा है कुमाऊं का इतिहास इतिहासकार डॉ. पाठक के मुताबिक हैजा, मलेरिया, हिल डायरिया समेत दूसरी बीमारियों में हिमालयी राज्यों में अनेकों लोगों की जान गई है। पहला विश्व युद्ध लड़कर लौटे कुमाऊं व गढ़वाल राइफल के कई जवान अपने साथ स्पैनिश इन्फ्लुएंजा लेकर लौटे। इससे कुमाऊं-गढ़वाल में कई मौतें हुई। यह बीमारी ऐसी थी लोग समझ नहीं पाते थे कि एक-दो दिन में उनकी मौत होने वाली है। विश्व युद्ध लड़ने वाले सैनिक गोली से नहीं बल्कि स्पैनिश इन्फ्लुएंजा से मरते थे।
हैजा से गई थी हजारों लोगों की जान उत्तराखंड में हिल डायरिया और मलेरिया आदि का भी लंबा इतिहास रहा है। केदारनाथ, काशीपुर, हरिद्वार व धारचूला के ब्यास घाटी में भयंकर हैजा फैला था। अकेले नैनीताल जिले में हैजा से 1892 में 2563, 1896 में करीब 1500, 1902 में 555 लोगों की मौत हुई। इसके बाद वैक्सीनेशन पर जोर दिया गया। नैनीताल जिले में 24 फीसद आबादी का वैक्सीनेशन किया गया। बढ़ती महामारी को देखते हुए ब्रिटिस शासकों ने तब नैनीताल के पटुवाडांगर व हिमाचल के कसौली में वैक्सीनेशन इंस्टीट्यूट की नींव रखी।
हेल्थ व एजुकेशन सिस्टम बेहतर बनाना होगा डॉ पाठक ने बताया कि कोरोना महामारी से लड़ने की कोई अचूक दवा फिलहाल नहीं है। वैक्सीन तैयार करने का काम विश्व स्तर पर चल रहा है। हमें फिलहाल अपने हेल्थ व एजुकेशन सिस्टम को बेहतर बनाना होगा। क्योंकि इतिहास का अनुभव भी बताता है कि जब जब इस तरह की महामारी आई हमने अपने संसाधनों व सुविधाओं में सुधार किया है। पहाड़ लौट रहे युवाओं को रोजगार के साथ उनके बच्चों को बेहतर शिक्षा देनी होगी। इतिहास से यही सीखा जा सकता है।
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