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जनता बदलाव मांगती है, एचएमटी की तरह ठहराव नहीं, मुसाफिरों ने साझा की मन की बात

दैनिक जागरण की टीम ने रोडवेज बस से सफर कर मुसाफिरों के मन की बात जानने की कोशिश की। इस दौरान तमाम ऐसे मुद्दे निकलकर सामने आए जो जाहिर तौर पर चुनाव में मसला बने हैं।

By Skand ShuklaEdited By: Updated: Wed, 03 Apr 2019 09:45 AM (IST)
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जनता बदलाव मांगती है, एचएमटी की तरह ठहराव नहीं, मुसाफिरों ने साझा की मन की बात
हल्द्वानी, शमशेर सिंह नेगी : क्या कभी 'समय' को ठहरा हुआ देखा है आपने? 82 साल के बुजुर्गवार (विजय सिंह) का यह सवाल थोड़ा अटपटा सा लगता है, मगर खटर-पटर करते हुए, मोड़ों पर झुकते हुए आगे बढ़ रही बस की थकी खिड़की से बाहर ताकती उनकी आंखों में इस सवाल का जवाब कैद है। बूढ़ी आंखें ठिठकी हैं एक काली और बेहद बदरंग इमारत (एचएमटी) पर। जिसकी दीवारों का स्वर्णिम 'कल' काई (शैवाल) ने ढंका है। मकडिय़ों ने अपने जालों को इमारत के इर्द-गिर्द इतनी शिद्दत से बुना है कि सड़क से ताक-झांक करने वाला भी इन जालों की उलझन न समझ पाए। बस चल रही है और विजय सिंह मायूस हैं इस दुर्गति को देखकर। वह फिर सवाल करते हैं। क्या यही हश्र होना चाहिए था कुमाऊं के द्वार पर स्थापित की गई इस फैक्ट्री का? कहते हैं तारीख इतिहास बनती है और तारीख ही इतिहास को बदलती भी है। 1985 का वह दौर याद आता है जब इस कारखाने की घड़ी का पेंडुलम चलते-चलते तारीख बदला करता था, पर आज तारीख ने इसे ही बदल दिया। अफसोस। हमारा सिस्टम, हमारे नेता कुछ नहीं कर पाए।

विजय सिंह नैनीताल जा रहे हैं। चुनावी धूप सिर पर सवार है। हल्द्वानी स्टेशन से बस पूर्वाह्न 11:40 बजे नैनीताल के लिए निकलती है तो जेहन में कई तरह के सवालों के साथ कोई सीट बुजुर्ग के हवाले होती है और किसी सीट पर युवा चेहरा बैठ जाता है। रानीबाग पार करने के बाद तापमान ने भी एक बड़ी अंगड़ाई लेकर उमस को हल्द्वानी की तरफ छोड़ दिया है। चर्चा इलेक्शन की है, मुद्दों की है, चुनाव मैदान में उतरे चेहरों के तजुर्बे की है, मोदी की है, कांग्रेस की है और कड़े मुकाबले की है। बस के पहिये रानीबाग की सीमा तक सरपट दौड़ रहे थे, लेकिन अब सफर पहाड़ का है तो सर्पीले मोड़ों की वजह से पहियों की रफ्तार भी उन मुद्दों की तरह हो चुकी है, जिनको चुनाव के समय एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे तक ले जाकर सिर्फ घुमाने का काम किया जाता है। भुजियाघाट से थोड़ा ऊपर बढऩे पर 26 साल के युवा वोटर कमल बहुत दूर दिखाई दे रही गौला की ओर इशारा करते हुए कहते हैं। यहां तो जमरानी बांध बनना था न? मैंने सुना था कि बिजली बनेगी, पानी मिलेगा। दस साल पहले बांध के बारे में जाना था, तब से बांध दिखा तो नहीं, सुन ही रहा हूं। आज हो जाएगा, कल हो जाएगा, परसों तक तो हो ही जाएगा। ऐसा कहते-कहते कितने बरस बिता दिए गए हैं। वैसे जमरानी अभी कितने साल तक चुनाव की हार-जीत तय करेगा? कमल के इस सवाल के पीछे साफ नजर आता है कि सिवाय तसल्ली देने के, राजनीति करने के अब तक कुछ नहीं हुआ है।

बस अचानक दोगांव के एक खतरनाक मोड़ पर घूमती है तो झटका लगता है और फिर ब्रेक। दस मिनट का हॉल्ट है। चाय-नाश्ते के बीच चर्चा फिर उन सनातन समस्याओं (बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य) की तरफ बढ़ती है, जिनके सहारे एक नहीं अनेक चुनाव लड़े जा चुके हैं। तबस्सुम चौथी बार वोट करने जा रही हैं। रहती हल्द्वानी हैं। बस की रफ्तार के साथ पहाड़ की चढ़ाई चढ़ रही चुनावी बहस और मुद्दों की बात को उनके कान सुन रहे हैं। वादों और हकीकत के बीच फासला क्या होता है, यह उनका अनुभव जानता है, मगर फिलहाल तबस्सुम का मानना है कि लोकतंत्र केवल वादों से नहीं चलता। किसी 15 लाख या 72 हजार की घुट्टी पीकर गरीब जिंदा नहीं रहता। किसी गरीब के घर पर खाना खा लेने भर से खुद को उनका हितैषी साबित नहीं किया जा सकता। देश विराट है, मुद्दे अलग हैं और इसी विराटता का हिस्सा है नैनीताल संसदीय क्षेत्र। तो फिर नेताओं का विजन आखिर यहां परंपरागत समस्याओं पर ही क्यों ठिठका है? बस ज्योलीकोट का बाजार पार करती हुई नैना गांव की धार (चढ़ाई) पर है और मुद्दे अपनी धार पर। बहस अब सियासी लड़ाई पर आ चुकी है। इस सीट से मैदान में उतरे भाजपा-कांग्रेस के प्रत्याशियों के बीच ही कड़ा मुकाबला माना जा रहा है, मगर जीतेगा कौन? पलड़ा किसका भारी? इन सवालों का जवाब फिलहाल बस के पहियों की तरह घूमता जा रहा है। जुबां पर मोदी हैं तो कांग्रेस को भी कम कर नहीं आंका जा रहा। हनुमानगढ़ी के आते ही श्रद्धा रूपी हाथ आपस में जुड़ते हैं। नैनीताल का बस स्टैंड अब सामने है। घड़ी डेढ़ बजा चुकी है और ब्रेक लगते ही फिर एक उम्मीद के साथ सवाल बस के दरवाजे से बाहर निकलता है। मुद्दे पांच साल पहले भी यही थे, पांच साल बाद भी यही होंगे, मगर हमें वोट करना है एक अच्छी सरकार के लिए। विजय सिंह हाथ में लाठी लेकर दरवाजे का हैंडल पकड़ बाहर आते हैं। उनके दिमाग में सिर्फ एचएमटी है और सवाल वही। समय ठहरना नहीं चाहिए। उम्मीद की घड़ी पर बेहतरी की, बदलाव की सुई चलती रहनी चाहिए।

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