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चंद शासनकाल में सिक्कों की ढलाई से लेकर तांबे के बर्तनों तक चमकता गया अल्‍मोड़ा का ताम्र शिल्प

ताम्र नगरी का इतिहास करीब 500 वर्ष पुराना है। धरती के गर्भ में ताम्र धातु की पहचान व गुणवत्ता परखने में माहिर तामता परिवार तब चंद राजाओं के दरबार में खास अहमियत रखता था। चम्पावत से अल्मोड़ा में राजधानी बनाने के बाद यहां तामता (टम्टा) परिवारों की टकसाल बनी।

By Skand ShuklaEdited By: Updated: Fri, 01 Oct 2021 05:46 PM (IST)
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चंद शासनकाल में सिक्कों की ढलाई से लेकर तांबे के बर्तनों तक चमकता गया अल्‍मोड़ा का ताम्र शिल्प
दीप सिंह बोरा, अल्मोड़ा : चंद शासनकाल में सिक्कों की ढलाई से लेकर मौजूदा पारंपरिक तांबे के बर्तनों तक का अल्मोड़ा का सफर बेहद समृद्ध रहा। चंद वंश की राजधानी में हुनरमंद तामता बिरादरी की टकसाल ने तमाम उतार चढ़ाव देखे। वक्त के साथ ताम्र शिल्पियों की हस्तकला पर मशीनीयुग की काली छाया क्या पड़ी, बुलंदियों पर रही ताम्रनगरी धीरे-धीरे उपेक्षा से बेजार होती चली गई। अब पर्वतीय राज्य के जिन सात उत्पादों को जीआइ टैग मिला है, उनमें यहां के तांबे से बने उत्पाद भी शामिल हैं। वैसे तो घरेलू बर्तन मसलन फौला, तौला के साथ धार्मिक आयोजनों में प्रयुक्त होने वाले पंचधारा, मंगल परात, गगार, कलश ने अल्मोड़ा को देश-विदेश तक पहचान दिलाई है।

ताम्र नगरी का इतिहास करीब 500 वर्ष पुराना है। धरती के गर्भ में ताम्र धातु की पहचान व गुणवत्ता परखने में माहिर तामता परिवार तब चंद राजाओं के दरबार में खास अहमियत रखता था। चम्पावत से अल्मोड़ा में राजधानी बनाने के बाद यहां तामता (टम्टा) परिवारों की टकसाल बनी। पाटिया (चम्पावत) से ये राज हस्तशिल्पी अल्मोड़ा में बसाए गए। तब ताम्रशिल्प को कुमाऊं के सबसे बड़े उद्योग का दर्जा मिला। टकसाल में गृहस्थी के साथ पूजा व धार्मिक आयोजनों में प्रयुक्त होने वाले बर्तनों के साथ सिक्कों की ढलाई व मुहर भी बनाई जाती थी। पुरखों से विरासत में मिली ताम्रशिल्प को संजोए हस्तशिल्पी नवीन टम्टा कहते हैं, पूर्वज पहले झिरौली (बागेश्वर) की पहाड़ी से तांबा निकालते थे। चंद राजवंश के बाद ब्रितानी हुकूमत ने खान बंद करा दी। ब्रिटेन से तांबा मंगाया जाने लगा। इसके बाद सिक्कों की ढलाई बंद हो गई।

आजादी के बाद बहुरे दिन

नवीन बताते हैं कि आजादी के बाद ताम्रनगरी फिर बुलंदियों की ओर बढ़ी। यहां के बने पराद (परात), गागर व कलश की भारी मांग रहती थी। मांगलिक व धार्मिक कार्यक्रमों के लिए फौले, गगरी, पंच एवं अघ्र्यपात्र, जलकुंडी ही नहीं शिव मंदिरों के लिए ताम्र निर्मित शक्ति की मांग अभी बरकरार है।

महाकुंभ में अल्मोड़ा के फौले, गागर और कलश

पारंपरिक ठनक कारखानों की बजाय आधुनिक फैक्ट्रियों में मशीनों से ताम्र उत्पाद बनने लगे। इससे ताम्र नगरी की टकसाल संकट में पड़ गई। हालांकि हरिद्वार महाकुंभ में तत्कालीन आइजी कुमाऊं संजय गुंज्याल की पहल पर यहां से अतिथियों के लिए 500 फौले, गागर व कलश बनवाए गए।

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