पानी, बिजली, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में सीमांत का गांव हो गया सूना
अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में दुर्गम में बसे गांवों की दशा वहां के विकास की हकीकत उजागर करने वाली है। विकास की बाट जोहते इन गांवों में अब सन्नाटे ने बसेरा बना लिया है।
By Skand ShuklaEdited By: Updated: Thu, 28 Mar 2019 11:57 AM (IST)
पिथौरागढ़, जेएनएन : अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में दुर्गम में बसे गांवों की दशा वहां के विकास की हकीकत उजागर करने वाली है। विकास की बाट जोहते इन गांवों में अब सन्नाटे ने बसेरा बना लिया है। सांसें रुके नहीं इसके लिए लोग रोज जिंदगी को ही दांव पर लगाकर जद्दोजहद करते हैं। इस दर्द का आलम यह रहा कि पहले घर के द्वार सूने हुए, फिर गलियां सुनसान हो गई और अंत में गांव वीरान।
संसदीय क्षेत्र अल्मोड़ा के पिथौरागढ़, बागेश्वर और चम्पावत जिले के लोगों के जख्म आज तक नहीं भर सके हैं। आजादी के बाद सरकारें बदलती गई, निजाम बदले, सरकारें बदली पहाड़ में वोटों का सौदा होता रहा। लोकसभा, विधानसभा में कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस सत्त्ता में आती रही। हर बाद उम्मीद जगी और सपने बिखरे। धीरे -धीरे एक गांव सूना हुआ ,वक्त क ऐसा चक्र चला कि आजादी के बाद दर्जनों गांव वीरान हो गए। अब गांव के लोग कभी कभार देवी देवताओं को पूजने आते हैं। सरकार की पलायन रोकने की फाइलें बंद कमरों, सेमीनार कराने और नीतियां बनाने तक ही रही और लोग अपना घर , गांव त्याग कर जाने को मजबूर हो गए। अवैतनिक रक्षा पंक्ति माने जाने सीमांत के दर्जनों गांव खाली हो गए। सियासत करने वाले पानी, बिजली, चिकित्सा की सुविधा तक नहीं दे पाए । सीमांत में पिछले चार दशकों में जिस तेजी के साथ पलायन हुआ उससे आबादी आधी से भी कम हो गई । सीमांत जिले से प्रतिमाह पलायन की दर साढ़े तीन परिवार हो चुकी है।
किसी ने गांव त्यागा तो किसी ने खेती छोड़ी
सिंचाई के अभाव और मौसम की मार से खेती घटने लगी। जानवरों का आतंक बढऩे ही लगा। जिसका परिणाम यह रहा कि पर्वतीय क्षेत्र में 55 फीसद से अधिक लोगों ने खेती करना बंद कर दिया है। जंगली जानवरों के आतंक से चम्पावत जनपद में 40 फीसद तो पिथौरागढ़ में 50 फीसद से अधिक लोगों ने खेती छोड़ दी है।
पिथौरागढ़ में ये गांव हो गए हैं वीरान
70 व 80 के दशक में सीमांत जिला पिथौरागढ़ ने पलायन का सबसे अधिक दंश झेला है। जनपद का खिमलिंग,नामेत, दुदरिया, लेखारगा, किरोली, , कफतर, हटलग्गा, पांतखोली और हटवाल गांव पूरी तरह वीरान हो चुके हैं। इन गांवों की नौ हजार से अधिक की आबादी पूरी तरह पलायन कर चुकी है। दो दर्जन से अधिक गांवों में अब ग्रामीणों की संख्या दहाई में नहीं रह गई है।
बागेश्वर में इन गांवों में छानी सुनसानी बागेश्वर जनपद के कपकोट विकास खंड के दर्जनों गांवों के लोग पलायन को मजबूर हैं। नाममात्र के लोग गांव में रहे हैं। जिले के बदियाकोट, बाथन, खाती,सुराग, धूनी ,क्वारी, इटिला , खलपट्टा, गोगिना , खलढुंगा जैसे गांवों से पांच हजार से अधिक आबादी पलायन कर चुकी है। गरु ड़, कांडा तहसीलों से भी पलायन की गति तेज है।
सरकार ने विकास को गांव की इकाई नहीं माना बीडी कसनियाल , सामाजिक एवं राजनैतिक विश्लेषक ने बताया कि देश की 70 फीसदी आबादी गांवों में बसती है, परंतु सरकारों ने अभी तक गांव को विकास की इकाई नहीं माना है। सभी विकास योजनाओं का केंद्र गांव होना चाहिए। विकास का आधार और रोजगार के साधन नही होने से गांव के लोग शहरी क्षेत्रों की तरफ पलायन करते हैं। पर्वतीय क्षेत्र से पलायन रोकने के लिए सरकार को ठोस पहल करनी चाहिए।
सुविधाओं के अभाव में हुआ पलायन कुंदन सिंह टोलिया, पूर्व प्रमुख एवं सामाजिक विश्लेषक ने बताया कि पहले तो पलायन का कारण मार्ग और यातायात की सुविधा नहीं होना रहा। छह दशक पूर्व तक उच्च हिमालय के मिलम, बुर्फू, टोला , गनघर, खिलांच , लास्पा, मर्तोली, ल्वां , पांछू, मापांग जैसे गांवों के ग्रामीण तिब्बत व्यापार करते थे। चीन सीमा पर स्थित मिलम जिले का सबसे बड़ा गांव था। जहां सैकड़ों परिवार रहते थे। गांव मे आने वाली नई नवेली दुल्हन को गांव की गलियां समझाने में कई दिन लग जाते थे। अब इन गांवों के कुछ ही लोग छह माह के लिए गांव जाते हैं। गांव वीरान पड़ चुके हैं।
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