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भूजल को समृद्ध करने वाला बांज का पेड़ अब विलुप्ति के कगार पर, जल संकट गहराया

पहाड़ का हरा सोना यानी बांज अब विलुप्ति के कगार पर है। वर्षा के पानी को अवशोषित कर भूमिगत करने वाले इन पेड़ों की कमी की वजह से धरती की कोख भी बांझ होती जा रही है।

By Skand ShuklaEdited By: Updated: Tue, 13 Aug 2019 11:12 AM (IST)
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भूजल को समृद्ध करने वाला बांज का पेड़ अब विलुप्ति के कगार पर, जल संकट गहराया
हल्द्वानी, गणेश जोशी : पहाड़ का हरा सोना यानी बांज अब विलुप्ति के कगार पर है। वर्षा के पानी को अवशोषित कर भूमिगत करने वाले इन पेड़ों की कमी की वजह से धरती की कोख भी बांझ होती जा रही है। परिणाम यह है कि गैर हिमालयी नदियों से लेकर अधिकांश नौले व धारों में उम्मीद से कम पानी रह गया है। वैसे तो बांज की सभी छह तरह की प्रजातियां खतरे में हैं, लेकिन सबसे अधिक तीन प्रजातियां रयांस, फ्यांठ और मोरू का अस्तित्व नष्ट होने को है। खुद वन विभाग इस तरह के संकट से परिचित है। इसके बावजूद बड़े स्तर पर पहल नहीं नजर आ रही है।

पर्यावरणविदों ने इसके लिए चिंता जाहिर की है और लगातार आवाज भी उठा रहे हैं। उनका कहना है, बांज की कुछ प्रजातियां रयांस, फ्यांठ व मोरू के बीज नहीं उग रहे हैं। इसके पीछे ग्लोबल वार्मिंग है या कोई अन्य वजह। इस पर वृहद स्तर पर शोध की आवश्यकता है। वन अनुसंधान केंद्र के रेंजर मदन बिष्ट ने माना कि पहले जंगलों में बांज के पेड़ अधिक दिखते थे। यही वजह थी कि धरती में नमी बनी रहती थी। सा्रेतों से पानी भी निकलता था, लेकिन अब जंगलों में बांज की संख्या बहुत कम हो गई है। हमने भी इसे गंभीरता से लिया है। इसके संरक्षण के लिए नर्सरी तैयार की जा रही है। 

बांज लगाओ, बांज बचाओ अभियान

कुमाऊं के कई गांवों में बांज के जंगल पूरी तरह समाप्त हो गए हैं। इसलिए लोगों जागरूक लोगों ने बांज लगाओ, बांज बचाओ अभियान भी शुरू कर दिया है। पर्यावरणविद चंदन नयाल ने ग्रामीणों के साथ मिलकर ओखलकांडा के देवगुरु जंगल को संरक्षित करने की अनूठी पहल की है। इसका परिणाम यह है कि क्षेत्र में जैव विविधता का भंडार हो गया है और भूमि की नमी भी बढ़ गई। उनका कहना है, वन विभाग को नर्सरी की जिम्मेदारी आम लोगों को दे देनी चाहिए।

पशुओं के लिए चारा व खाद के लिए भी उपयोगी

पर्यावरण को समृद्ध रखने के लिए बेहद उपयोगी बांज की पत्तियों और चारे के लिए इस्तेमाल होती है। यह चारा पौष्टिक है। इसकी सूखी पत्तियां पशुओं के बिछावन के लिए प्रयोग होती है, जो पशुओं के मल-मूत्र में सनने से खाद बन जाती है।

लोकगीतों में भी दिखती है बांज के कटने की पीड़ा

क्षेत्रीय लोगों ने निजी उपयोग के लिए बांज का अंधाधुध कटान किया। यही कारण है कि बांज जंगलों से कम हो गया। इसकी पीड़ा लोकगीतों में भी झलकती है। लोकगीत नी काटा झुमराली बांजा, बजांनी धुरा ठंडा पाणि... यानी कि घने पत्तियों वाले बांज को मत काटो, इस जंगल का पानी बहुत ठंडा है।

1200 से पांच हजार फिट ऊंचाई पर होता है जंगल

बांज की मोरू प्रजाति पांच हजार फिट की ऊंचाई पर मिलती है। रयांस व अन्य प्रजातियां 1200 से 3500 फिट की ऊंचाई पर पाई जाती हैं।

बांज से 23 फीसद भूजल संग्रहण

वन विभाग के अनुसार ही कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों में 80 फीसद चीड़ है, जबकि तीन फीसद से कम बांज है। कुमाऊं विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में डॉ. जेएस रावत के अध्ययन से भी यह साबित हो चुका है कि बांज के जंगलों से 23 फीसद जल संग्रहण होता है। इसके अलावा चीड़ से 16 फीसद, खेतों से 13 फीसद, बंजर भूमि से पांच फीसद और शहरी भूमि से केवल दो फीसद की वृद्धि होती है।

वन विभाग कर रहा 

मदन बिष्ट, रेंज, वन अनुसंधान केंद्र ने बताया कि वन विभाग बांज के संरक्षण के लिए जुटा है। नर्सरी में पौधे तैयार होने के बाद अलग-अलग जगहों पर रोपे जाएंगे। जंगल की आग से इन पौधों को बचाने का प्रयास होगा। जंगल में बांज को बचाना जरूरी है।

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