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पूर्णागिरि मेला : अन्नपूर्णा की चोटी पर बसा है मां पूर्णागिरि का धाम, जानिए क्या है मान्यता

कहा जात है कि गुजरात के श्री चंद तिवारी यमनों के अत्याचार के बाद जब चम्पावत के चंद राजा ज्ञान चंद के शरण में आए। उन्हें एक रात सपने में मां पूर्णागिरि ने मंदिर बनाने का आदेश दिया। उसके बाद 1632 में धाम की स्थापना कर पूजा अर्चना शुरू हुई।

By Prashant MishraEdited By: Updated: Sat, 19 Mar 2022 12:57 PM (IST)
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यह स्थान आस्था, भक्ति और श्रद्धा की त्रिवेणी बना हुआ है।

जागरण संवाददाता, चम्पावत : श्रीमद् देवी भागवत पुराण में मां पूर्णागिरि की आराधना ‘सिंदुराभां त्रिनेत्राम मृतशशिकलां खेचरीं रक्तवस्त्रां, पीनोन्तुङ्ग स्तनाढ्यामभिनव विलसद्यौवनारंभ रम्याम। नाना लंकारयुक्तां सरसिजनयना मिंदु संक्रांतमूर्ति, देवीं पाशांकुशाख्याम भयवर कराम अन्नपूर्णां नमामि।।’ श्लोक से की गई है।

चम्पावत जनपद के टनकपुर कस्बे से 24 किमी दूर अन्नपूर्णा चोटी पर मां का धाम बसा है। मां के 52 शक्तिपीठों में एक पीठ यह भी है। माता सती की यहां पर नाभि गिरी थी। 1632 में श्रीचंद तिवारी ने यहां पर मंदिर की स्थापना की और माता की विधिवत पूजा अर्चना शुरू की। मान्यता है कि सच्चे मन से धाम में जो भी अपनी मन्नत मांगता है उसकी मुराद पूरी होती है।

किवदंती है कि जब सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपमानित होकर स्वयं को जला डाला तो भगवान शिव उनके पार्थिव शरीर को आकाश मार्ग से ले जा रहे थे तो अन्नपूर्णा चोटी पर जहां नाभि गिरी उस स्थल को पूर्णागिरि शक्तिपीठ के रूप में पहचान मिली।

कहा जाता है कि संवत 1621 में गुजरात के श्री चंद तिवारी यमनों के अत्याचार के बाद जब चम्पावत के चंद राजा ज्ञान चंद के शरण में आए तो उन्हें एक रात सपने में मां पूर्णागिरि ने नाभि स्थल पर मंदिर बनाने का आदेश दिया और 1632 में धाम की स्थापना कर पूजा अर्चना शुरू हुई। तब से ही यह स्थान आस्था, भक्ति और श्रद्धा की त्रिवेणी बना हुआ है।

यहां पहुंचने वाले हर भक्त की मुराद जरूर पूरी होती है। यहां वर्ष भर श्रद्धालु शीश नवाते हैं। चैत्र और शारदीय नवरात्र में तो इस धाम में भक्तों का रेला उमड़ पड़ता है। उत्तर भारत ही नहीं अपितु देश भर के लोग यहां मां के दर्शन को आते हैं।

ठुलीगाड़ है धाम का पहला पड़ाव

टनकपुर पहुंचने के बाद श्रद्धालु पवित्र शारदा नदी में स्नान कर आठ किमी दूर धाम का पहला पड़ाव ठुलीगाड़ आता है। इस स्थान पर विभिन्न धर्म परायण लोगों द्वारा भंडारा लगाया जाता है।

बाबा भैरवनाथ है मां के द्वारपाल

शक्तिपीठ में पहुंचने से पूर्व भैरव मंदिर पर बाबा भैरवनाथ का वास है। वह उनके द्वारपाल के तौर पर खड़े हैं। उनके दर्शन के बाद ही मां के दर्शनों की अनुमति मिलती है। जहां वर्ष भर धूनी जली रहती है। बाबा भैरव को हनुमान का सारथी व शिव के काल का रूप भी माना जाता है।

‘झूठा मंदिर’ की भी होती है पूजा

मां पूर्णागिरि धाम में झूठा मंदिर की भी पूजा की जाती है। कहावत है कि किसी सेठ ने पुत्र रत्न प्राप्त होने पर मां के दरबार में सोने का मंदिर चढ़ाने की प्रतिज्ञा की थी। लेकिन मन्नत पूरी होने के बाद लोभवश उस सेठ ने तांबे में सोने का पानी चढ़ाकर मंदिर बनवाया।

जब मजदूर उस मंदिर को धाम की ओर ले जा रहे थे तो विश्राम के बाद वह मंदिर वहां से नहीं उठ सका। तब से इसे झूठे मंदिर के रूप में जाना जाता है और मां पूर्णागिरि के दर्शन के बाद श्रद्धालु इस मंदिर में भी पूजा करते हैं।

सिद्ध बाबा के दर्शन से पूरी होती है यात्रा

पूर्णागिरि मंदिर से ऊंची चोटी पर एक सिद्ध बाबा ने अपना आश्रम जमा लिया था। जो उन्मत्त होकर देवी को श्रृंगार को देखता था। क्रोध में देवी ने सिद्ध को शारदा नदी के पार नेपाल में फेंक दिया।

लेकिन जब वह अपने कृत्य के लिए गिड़गिड़ाया और माफी मांगी तो मां ने कहा कि उनकी यात्रा तभी पूरी होगी जब श्रद्धालु सिद्ध बाबा के भी दर्शन करेंगे। तब से ही नेपाल में सिद्धबाबा का मंदिर स्थापित है और मां पूर्णागिरि के दर्शन के बाद भक्त सिद्धबाबा मंदिर में शीश नवाते हैं।

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