सौ साल पहले कुली बेगार प्रथा के विरोध में उत्तराखंड में हुई थी रक्तहीन क्रांति, जानिए nainital news
उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में सरयू के बगड़ में सौ साल पहले कुली बेगार प्रथा के विरोध में जन्मी रक्तहीन क्रांति की सफलता के पीछे बागनाथ की कांति थी।
By Skand ShuklaEdited By: Updated: Wed, 15 Jan 2020 10:22 AM (IST)
हल्द्वानी, प्रमोद पांडे : उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में सरयू के बगड़ में सौ साल पहले कुली बेगार प्रथा के विरोध में जन्मी रक्तहीन क्रांति की सफलता के पीछे बागनाथ की कांति थी। आंदोलन के नेताओं को हिरासत में लेने का तत्कालीन जिलाधिकारी डब्ल्यूसी डायबल का नोटिस भी वहां उमड़े जन समूह के आगे बेअसर हो गया था। यह आंदोलन का ही प्रभाव था कि बाद में महात्मा गांधी ने अपने यंग इंडिया समाचार पत्र में इसे रक्तहीन क्रांति की संज्ञा दी थी।
इस तरह से तैयार हुई थी आंदोलन की भूमिका 1913 में अनिवार्य रूप से लागू कुली बेगार प्रथा जब आम जन के शोषण का माध्यम बनी तो इसके विरोध के बीज भी अंकुरित होने लगे। 1920 में नागपुर में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में शामिल होने के लिए कुमाऊं से गए पं. गोविंद बल्लभ पंत, बदरीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत, विक्टर मोहन जोशी ने वहां गांधी जी से विमर्श के बाद इस आंदोलन की भूमि तैयार की थी। शक्ति समाचार पत्र के माध्यम से पं. बदरीदत्त पांडे के जनजागरण का ही नतीजा था कि 1921 की मकर संक्रांति के अवसर पर बागेश्वर में आयोजित होने वाले सरयू बगड़ पर लगभग 40 हजार लोग एकत्रित हो गए।
कुली रजिस्टरों को फाड़कर कर दिया था प्रवाहित
बागनाथ को साक्षी मानते हुए जन सैलाब को बेगार कुप्रथा का पालन नहीं करने की शपथ दिलाने और तत्कालीन सरकार से इसे वापस लेने की पं. बदरी पांडे की गर्जना भी वहां मौजूद अल्मोड़ा के तत्कालीन जिलाधिकारी डायबल को कार्रवाई के लिए बाध्य नहीं कर सकी। इसी के साथ हजारों प्रधानों के अपने कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित करने का साहस इतिहास में कुमाऊं की रक्तहीन क्रांति के नाम से विख्यात हो गया। आंदोलन को गढ़वाल में पं. अनुसुइया प्रसाद बहुगुणा ने संचालित किया था। इसी की सफलता के बाद बदरी दत्त पांडे व अनुसुइया प्रसाद बहुगुणा को क्रमश: कुमाऊं व गढ़ केसरी का सम्मान दिया गया था।
जानिए क्या थी कुली बेगार प्रथा आम आदमी से कुली का काम बिना पारिश्रमिक कराने का कानून था। गांवों के प्रधानों को निश्चित अवधि के लिए निश्चित संख्या में शासक वर्ग को कुली मुहैया कराने की जिम्मेदारी दी गई थी। इसके लिए प्रधान के पास बकायदा रजिस्टर भी होता था, जिसमें सभी ग्रामीणों के नाम होते थे। इन ग्रामीणों से बारी-बारी से कुली बेगारी कराई जाती थी। यानी ब्रिटिश शासन काल की यह ऐसी सरकारी व्यवस्था थी, जिसके अंतर्गत ग्रामीण बिना मजदूरी सरकार की सेवा करने को बाध्य होते थे।
जानिए बागनाथ मंदिर के बारे में बागनाथ मंदिर, भारत के उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में सरयु और गोमती नदियों के संगम पर बागेश्वर शहर में स्थित है। बागनाथ मंदिर भगवान शिव को पूणतः समर्पित है। इस मंदिर में शिवरात्रि के अवसर पर भक्तों की बहुत बढ़ी संख्या भगवान शिव के दर्शन के लिए आते है। बागेश्वर शहर को यह नाम इस मंदिर से मिला है। हिंदू किंवदंती के अनुसार, ऋषि मार्कंडेय ने यहां भगवान शिव की पूजा की थी। भगवान शिव ने बाघ के रूप में यहां आकर ऋषि मार्कंडेया को आशीर्वाद दिया था। यहां उत्तरायणी मेला हर साल जनवरी महीने में मकर संक्रांति के अवसर पर आयोजित किया जाता है। मेले के धार्मिक अनुष्ठान में संगम पर मेले के पहले दिन स्नान करने से पहले स्नान होता है। स्नान के बाद, मंदिर के अंदर भगवान शिव को पानी अर्पित करना आवश्यक माना जाता है। इस धार्मिक अनुष्ठान को तीन दिनों तक किया जाता है जिसे ‘त्रिमाघी’ के नाम से जाना जाता है।
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