ऑस्ट्रेलिया से टीपू सुल्तान लेकर आया था यूकेलिप्टिस
तराई के जंगलों में कब्जा जमा चुका यूकेलिप्टिस पहली बार मैसूर के जंगलों में लगाया गया था। वन अनुसंधान केंद्र प्रभारी मदन बिष्ट के मुताबिक यह मूल रूप से ऑस्ट्रेलिया का वृक्ष है।
By Skand ShuklaEdited By: Updated: Tue, 10 Sep 2019 08:16 PM (IST)
गोविंद बिष्ट, हल्द्वानी। तराई के जंगलों में कब्जा जमा चुका यूकेलिप्टिस का पेड़ पहली बार दक्षिण भारत के मैसूर के जंगलों में लगाया गया था। वन अनुसंधान केंद्र हल्द्वानी के प्रभारी मदन बिष्ट के मुताबिक यह मूल रूप से ऑस्ट्रेलिया का वृक्ष है। मैसूर के शासक रहे टीपू सुल्तान ने भारत में इसका चलन शुरू करवाया था। इसलिए इसे मैसूरगम भी कहा जाता है। यूकेलिप्टिस लगभग साठ के दशक में यह तराई के जंगलों में अपनी पकड़ बनाने लगा। औद्योगिक इस्तेमाल होने की वजह से स्थानीय प्रजातियों की अपेक्षा यूकेलिप्टिस ने जंगल में अपना दायरा लगातार बढ़ाया। कागज व प्लाइवुड बनाने में इसका प्रयोग ज्यादा है। वहीं, भवन निर्माण सामग्री जैसे शटङ्क्षरग आदि में इसकी लकड़ी काम आती है। हालांकि वन विभाग अब इस प्रजाति का प्रतिशत रिजर्व फॉरेस्ट से कम करने जा रहा है। इसकी जगह स्थानीय प्रजातियों को जगह ज्यादा दी जाएगी। ताकि वानिकी संरक्षण की दिशा में ज्यादा कम हो सके।
पत्तियों में एसिड होता है
वन विभाग के मुताबिक यूकेलिप्टस के पेड़ों के आसपास अन्य प्रजतियां जल्दी से नहीं पनपती। इसकी पत्तियों में एसिड होता है। जैव विविधता के लिए प्रजाति किसी काम की नहीं। जंगल में इसकी मात्रा ज्यादा होना वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास व भोजन श्रृंखला को भी प्रभावित करता है।
यूकेलिप्टिस-पापुलर के लिए चार डिवीजन
तराई पूर्वी, तराई पश्चिमी, तराई केंद्रीय और बिजनौर डिवीजन तराई के क्षेत्र में आती है। इन चार जगह पर यूकेलिप्टिस की मात्रा ज्यादा है। हालांकि बिजनौर डिवीजन राज्य गठन के बाद यूपी का हिस्सा हो चुकी है।
तराई के दलदल को पहले कम भी किया
एक जमाने में तराई के जंगल में पानी की मात्रा अधिक होने के कारण दलदल भी रहता था। यहां घास के कीचड़ वाले बड़े मैदान थे। उस दौरान यूकेलिप्टिस और पापलुर ने इस पानी को कम करने में भी भूमिका निभाई। हालांकि अब यह जलस्तर के लिए खतरा बन रहा है। मदन बिष्ट, प्रभारी वन अनुसंधान केंद्र का कहना है कि ऑस्ट्रेलियन मूल की यूकेलिप्टिस प्रजाति को मैसूर के शासक टीपू सुल्तान भारत लेकर आए थे। अब जंगलों से इसे कम किया जा रहा है। ताकि स्थानीय प्रजातियों का संरक्षण तेजी से हो। वानिकी के संरक्षण के लिए यह जरूरी भी है।
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