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पहचान खो रहे पारंपरिक गेरू और बिस्वार के ऐपण, पेंट और रेडीमेट स्टीकर ऐपण बने विकल्प

देवभूमि की परंपरा व लोककलाओं का समृद्धशाली इतिहास रहा है। सांस्कृतिक विरासत के चलते देवभूमि को देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अलग पहचान मिली है। प्रदेश की ऐसी ही एक विरासत है ऐपण। लेकिन बदलते समय के साथ ही इसके पारम्परिक स्वरूप में भी बदलाव आने लगा है।

By Skand ShuklaEdited By: Updated: Thu, 12 Nov 2020 10:57 AM (IST)
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पहचान खो रहे पारंपरिक गेरू और बिस्वार के ऐपण, पेंट और रेडीमेट स्टीकर ऐपण बने विकल्प

नैनीताल, जेएनएन : देवभूमि की परंपरा व लोककलाओं का समृद्धशाली इतिहास रहा है। सांस्कृतिक विरासत के चलते देवभूमि को देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अलग पहचान मिली है। प्रदेश की ऐसी ही एक विरासत है ऐपण। कोई पर्व हो या मांगलिक कार्य हर अवसर पर यह लोक चित्रकला घरों में उकेरी जाती है, लेकिन बदलते समय के साथ ही इसके पारम्परिक स्वरूप में भी बदलाव आने लगा है। शुभ अवसरों पर घरों में गेरू और चावल के घोल (बिस्वार) से बनाया जाने वाले ऐपण अपनी पहचान खो रहा है। पेंट और रंगों से बने ऐपणों और रेडीमेट स्टीकर ऐपण ने इसका स्थान के लिया है। ऐसे में नैनीताल शहर की चेली आर्ट संस्था समय समय पर गेरू और बिस्वार से बनाए जाने वाले ऐपण का प्रशिक्षण दे रही है। साथ ही यह संस्था महिलाओं को रोजगार भी मुहैया करा रही है।

प्रदेश में खासकर कुमाऊं क्षेत्र में शुभ अवसरों पर घर को विशेष तरह से सजाने की परंपरा रही है। शादी, व्रत हो या त्योहार सभी मे अलग अलग तरह के ऐपण तैयार कर घरों को सजाया जाता है। शुरुआत में गेरू और चावल के घोल (बिस्वार) से दीवारों, देहरी, आंगन, पूजा स्थलों और फर्श पर मांगलिक प्रतीकों और अन्य कलाकृतियां उकेर कर ऐपण बनाने की परंपरा रही है। ग्रामीण अंचलों में तो आज भी गेरू और बिस्वार के ऐपण बनाये जा रहे है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में इस कला का स्वरूप बदल गया है। पेंट विभिन्न प्रकार के रंग और यहा तक कि रेडीमेट स्टीकर ऐपण ने इसका स्थान ले लिया है।

लीपना है ऐपण का मूल अर्थ

चेली आर्ट संस्था अध्यक्ष किरन तिवारी बताती है कि ऐपण का अर्थ है लीपना। जिसमे लीप शब्द के मूल अर्थ को जाने तो वह उंगलियों से रंग लगाना है। प्राकृतिक रंग गेरू जो कि एक तरह की मिट्टी है उसकी पृष्ठभूमि पर चावल के घोल को उंगलियों से अलंकरण कर कलाकृतियां बनाई जाती है, लेकिन समय के बदलाव के साथ ही गेरू और बिस्वार का स्थान पेंट ने ले लिया है। साथ ही कलाकृतियां उकेरने में उंगलियों के बजाए ब्रश का उपयोग होने लगा है।

मूल स्वरूप संरक्षित करने का संस्था दे रही प्रशिक्षण

बदलती हुई इस परंपरा के मूल स्वरूप को बचाने के लिए चेली आर्ट संस्था सराहनीय प्रयास कर रही है। संस्था अध्यक्ष किरन तिवारी ने बताया कि इसके लिए संस्था की ओर से समय समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे है। जिसमें महिलाओं और विशेषकर छोटे बच्चो को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। जिससे कुमाऊं की यह परंपरा जीवंत रह सके।

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