कुमाऊं का सबसे बड़ा अस्पताल है सुशीला तिवारी, फिर भी सरकारों ने सुविधाएं बढ़ाने पर नहीं दिया ध्यान
पूर्व सीएम नारायण दत्त तिवारी की महत्वाकांक्षी परियोजना। इस परियोजना के पीछे मंशा था कि कुमाऊं के लोगों को बेहतर इलाज मिल सके। इलाज के साथ युवाओं को चिकित्सा शिक्षा की पढ़ाई के लिए दूसरे शहरों में न भटकना पड़े।
By Skand ShuklaEdited By: Updated: Thu, 20 Jan 2022 08:55 AM (IST)
जागरण संवाददाता, हल्द्वानी : पूर्व सीएम नारायण दत्त तिवारी की महत्वाकांक्षी परियोजना। इस परियोजना के पीछे मंशा था कि कुमाऊं के लोगों को बेहतर इलाज मिल सके। इलाज के साथ युवाओं को चिकित्सा शिक्षा की पढ़ाई के लिए दूसरे शहरों में न भटकना पड़े। इसी उद्देश्य से वर्ष 1989 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सीएम रहते हुए तिवारी ने बहुआयामी अस्पताल का शिलान्यास किया था।
28 जुलाई 1996 को डा. सुशीला तिवारी स्मारक वन चिकित्सालय का तत्कालीन पीएम एचडी देवगौड़ा ने उद्घाटन कर दिया था। वैसे देखा जाए तो अब इसका स्वरूप बढ़ चुका है। एमबीबीएस की 125 सीटों के साथ ही एमडी व एमएस की भी पढ़ाई होने लगी है, लेकिन कालेज को जिस गति से आगे बढऩा चाहिए था वैसा संभव नहीं हुआ। आज कालेज से लेकर अस्पताल बाहर से दिखने में कितना ही बड़ा लगे, पर अंदरूनी हालात बहुत अच्छे नहीं है। इसका कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति न होना और नौकरशाही का ढुलमुल रवैया जिम्मेदार है।
कम होती गई मेडिकल कालेज की सीटें
तीन साल पहले तक मेडिकल कालेज में 75 से अधिक एमडी व एमएस की सीटें हो चुकी थी। उम्मीद थी कि अब यह संख्या 100 से अधिक हो जानी चाहिए, लेकिन 50 से कम हो गई हैं। सर्जरी से लेकर मेडिसिन व अन्य महत्वपूर्ण विभागों में डाक्टरों की कमी के चलते नेशनल मेडिकल कमीशन ने पीजी की पढ़ाई की अनुमति ही नहीं दी।बजट जारी हुआ, लेकिन काम न हो सका शुरू
भारत सरकार ने सात वर्ष पहले ही स्टेट कैंसर इंस्टीट्यूट की अनुमति दे दी थी, लेकिन 2019 में स्वीकृति मिली। यह 103 करोड़ की परियोजना है। तब से 152 पद स्वीकृत हो चुके हैं। 87 करोड़ की डीपीआर स्वीकृत हो चुकी है। 39 करोड़ रुपये जारी होने के बावजूद काम शुरू नहीं हो सका। पूरा तंत्र जुटने के बावजूद वन भूमि का अड़ंगा दूर नहीं कर सका।एसटीएच पर मरीजों का दबाव
एसटीएच पर कुमाऊं के अलावा पश्चिम उत्तर प्रदेश व नेपाल से भी मरीज उपचार को पहुंचते हैं। 670 बेड के अस्पताल में 300 से 400 मरीज भर्ती रहते हैं। कोरोना के दौर में भी 500 से अधिक भर्ती हो गए थे। कम संसाधनों व स्टाफ के चलते कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा।इन कमियों पर नहीं दिया ध्यान - फैकल्टी को दूर करने के लिए नहीं दिया गया ध्यान
- एमडी व एमएस सीटें लगातार कम होते रहीं- रेडियोलाजिस्ट की कमी दूर नहीं की गई- अल्ट्रासाउंड के लिए बाहर जाना पड़ता है- 14 वर्ष पुरानी हो चुकी हैं सीटी स्कैन व एमएआआइ मशीनें- सुपरस्पेशलिस्ट विभाग अलग से नहीं बनाए गएमेडिकल कालेज से लेकर अस्पताल में सुविधाएं बढ़ीं प्राचार्य प्रो. अरुण जोशी ने बताया कि मेडिकल कालेज से लेकर अस्पताल में सुविधाएं बढ़ी हैं। फैकल्टी की कमी को दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। फैकल्टी की कमी की वजह से पीजी की सीटें कम हुई हैं। इसे बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं। स्टेट कैंसर इंस्टीट्यूट को लेकर भी मामला वन भूमि तक ही सीमित है।
एक नजर में - 1989 में चिकित्सालय का शिलान्यास- 1996 में तत्कालीन पीएम एचडी देवगौड़ा ने उद्घाटन किया- 2004 में राजकीय मेडिकल कालेज की शुरुआत हुई- 2010 में ट्रस्ट से अस्पताल राजकीय बन गया- 1800 मरीज प्रतिदिन कराने पहुंचते हैं उपचार- 125 सीटें में एमबीबीएस की पढ़ाई- 48 से कम सीटों पर एमडी व एमएस की पढ़ाई
- 46 प्रतिशत डाक्टरों की कमी- 07 वर्ष पहले स्टेट कैंसर इंस्टीट्यूट की घोषणा- 2019 को मिली थी 103 करोड़ रुपये स्टेट कैंसर इंस्टीट्यूट की स्वीकृति- 300 पदों के सापेक्ष 166 डाक्टर ही कार्यरत
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