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1962 के युद्ध में ग्रामीणों ने पीठ पर लादकर सेना तक पहुंचाया था गोला-बारूद

चीन से तनाव के बीच भारतीय सेना ने मजबूत मोर्चेबंदी की। आइटीबीपी के साथ ही थल सेना और वायु सेना के जांबाजों ने सीमा पर मुस्तैदी दिखाई।

By Skand ShuklaEdited By: Updated: Thu, 11 Jun 2020 08:24 AM (IST)
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1962 के युद्ध में ग्रामीणों ने पीठ पर लादकर सेना तक पहुंचाया था गोला-बारूद
मुनस्यारी, देवेंद्र सिंह देवा : चीन से तनाव के बीच भारतीय सेना ने मजबूत मोर्चेबंदी की। आइटीबीपी के साथ ही थल सेना और वायु सेना के जांबाजों ने सीमा पर मुस्तैदी दिखाई। परिणाम रहा कि लद्दाख में मंगलवार को चीनी सेना को पीछे हटना पड़ा। इस बीच चीन से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की भी नजर पूरे घटनाक्रम पर लगी रही। खासकर 1962 के युद्ध में अहम भूमिका निभाने वाले सीमांत के ग्रामीणों की। असल में भारत-चीन युद्ध के समय ग्रामीणों ने अपनी पीठ पर सेना के लिए गोला-बारूद ढोया था। दूसरे मोर्चे के रूप में खुद रसद की सप्लाई भी मुहैया कराई। घरों में जवानों के लिए भोजन तक बनवाया।

1962 में धारचूला तक सड़क नहीं थी। धारचूला से गुंजी , लीपुलेख तक पैदल मार्ग था। वह भी बेहद खतरनाक। यहां से जानवरों की पीठ पर सामान ले जाना भी मुश्किल था। सेना के लिए हथियार से लेकर रसद सीमा तक पहुंचाने की चुनौती बड़ी थी। इस वक्त स्थानीय ग्रामीण सेना के बड़े मददगार बनकर सामने आए।

विपरीत परिस्थिति में भी व्यास घाटी के ग्रामीणों ने सेना के लिए मोर्चा संभाला। धारचूला से अपनी पीठ पर रसद और हथियार, गोला-बारूद ढोया। मदद में महिलाएं भी पीछे नहीं रहीं। सैनिकों के लिए अपने चौके में खाना पकातीं और पतियों के माध्यम से उसे जवानों तक पहुंचातीं। इसी जज्बे से इन ग्रामीणों को सीमा प्रहरी का दर्जा दिया गया।

संसाधनों के अभाव में मजबूत मोर्चबंदी

भारत-चीन युद्ध के समय तक धारचूला में कुछ भी नहीं था। धारचूला से गुंजी की दूरी 75 किमी। यहां से लीपुलेख का सफर करीब 110 किमी में पूरा होता था। सेना का गोला-बारूद जब धारचूला से आगे जाता तो व्यास घाटी के बूंदी, गरब्याग, गुंजी, नाबी, कुटी , रोगकोंग, नपलच्यु के ग्रामीण रास्ते मे सामान लीपुलेख तक पहुंचाने के लिए तैयार रहते। तब संसाधनों के अभाव में ग्रामीणों के सहयोग से मजबूत मोर्चेबंदी की गई।

चीन के रवैये को देख छोड़ दिया व्यापार

1962 में चीन के रुख को देखते हुए स्थानीय व्यापारियों ने कारोबारी रिश्ता ही तोड़ लिया। मुनस्यारी तहसील की चीन से लगी सीमा कुंगरी विंगरी और ऊंटाधूरा को पार करते हुए भारतीय व्यापारी चीनी मंडी ज्ञानिमा पहुंचते थे। तब मुद्रा की बजाए वस्तु विनियम के जरिये ज्यादा कारोबार होता था। भारतीय चीन के व्यापारियों पर बचे बकाये को अगले वर्ष ले लेते थे। वर्ष 1962 में युद्ध से पहले चीन से अच्छा खासा कारोबार होता था। मुनस्यारी क्षेत्र के 24 से अधिक व्यापारी इस कारोबार में लगे थे। युद्ध हुआ तो सभी ने चीन जाना ही छोड़ दिया। कई भारतीय व्यापारियों का बकाया आज भी चीन के व्यापारियों पर चढ़ा हुआ है। हालांकि 1991 में धारचूला तहसील के लिपुलेख दर्रे से व्यापार फिर शुरू हो गया, लेकिन मुनस्यारी के व्यापारियों ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई।

सेना ने सहयोग के ल‍िए की थी प्रशंसा

दुर्गा सिंह मर्तोलिया, व्यापारी परिवार के सदस्य का कहना है क‍ि परिवार के कई सदस्य भारत-चीन व्यापार में शामिल थे। यही हमारी आजीविका का मुख्य साधन था, लेकिन चीन से युद्ध के बाद परिवार के साथ ही अन्य व्यापारियों ने भी व्यापार को तिलांजलि दे दी। स्‍थानीय न‍िवासी उत्तम सिंह रिलकोटिया ने बताया क‍ि भारत की ओर से उन दिनों मुनस्यारी के पांगती परिवार का भारत-चीन व्यापार में दबदबा था। 1962 में व्यापारियों ने भी सीमा तक रसद और हथियार पहुंचाने में अपना सहयोग दिया, जिसके लिए भारतीय सेना ने उनकी प्रशंसा की थी।

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