बद्री दत्त पांडे ने कुली बेगार प्रथा के खिलाफ आंदोलन को दी धार, चीन युद्ध के समय सबकुछ भेंट कर दिया सरकार को
पं. बद्री दत्त पांडे 1921 में एक साल 1930 में 18 माह 1932 में एक साल 1941 में तीन माह जेल में रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्हें जेल भेजा गया। आजादी के बाद भी अल्मोड़ा में रहकर वह सामाजिक कार्यों में सक्रियता से हिस्सा लेते रहे।
By Skand ShuklaEdited By: Updated: Tue, 02 Aug 2022 12:37 PM (IST)
जागरण संवाददाता, अल्मोड़ा : देश को आजादी दिलाने में कुमाऊं के वीर सपूतों का भी अहम योगदान रहा है। उनमें एक नाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. बद्री दत्त पांडे (Badri Dutt Pandey) रहा है। पत्रकारिता से जन आंदोलन शुरू करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने अल्मोड़ा में रहकर देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कुली बेगार प्रथा के खिलाफ आंदोलन और कई बार जेल जाने वाले स्व. पांडे को हमेशा स्वर्णिम अक्षरों में याद किया जाएगा।
सात वर्ष की आयु में हो गए अनाथ
हरिद्वार में प्रसिद्ध वैद्य स्व. विनायक पांडे के घर 15 फरवरी 1882 को बद्री दत्त पांडे का जन्म हुआ। सात वर्ष की आयु में उनके माता और पिता दोनों का निधन हो गया। उनके पिता मूल रूप से अल्मोड़ा के रहने वाले थे। माता-पिता के निधन के बाद बद्री दत्त वापस अल्मोड़ा आ गए। यहां उन्होंने शिक्षा प्राप्त की।1913 में अल्मोड़ा अखबार की स्थापना की
1903 में उन्होंने एक स्कूल में शिक्षण कार्य किया। इसके बाद देहरादून में उनकी सरकारी नौकरी लग गई। लेकिन कुछ समय बाद ही वह नौकरी से त्यागपत्र देकर पत्रकारिता में आ गए। 1903 से 1910 तक देहरादून में लीटर नाम के एक अखबार में काम किया। 1913 में उन्होंने अल्मोड़ा अखबार की स्थापना की। अखबार के जरिए उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने का कार्य किया।
अल्मोड़ा अखबार को शक्ति अखबार का दिया रूप
अंग्रेज अधिकारी अखबार के प्रकाशन पर रोक लगा देते थे। इसके बाद अल्मोड़ा अखबार को ही उन्होंने शक्ति अखबार का रूप दिया। 1921 में कुली बेगार आंदोलन में बीडी पांडे की भूमिका को हमेशा याद किया जाता है। उन्हें कुमाऊं केसरी की उपाधि से भी नवाजा गया।सितंबर 1957 में अल्मोड़ा सीट से सांसद बने
पं. बद्री दत्त पांडे 1921 में एक साल, 1930 में 18 माह, 1932 में एक साल, 1941 में तीन माह जेल में रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्हें जेल भेजा गया। आजादी के बाद भी अल्मोड़ा में रहकर वह सामाजिक कार्यों में सक्रियता से हिस्सा लेते रहे। सितंबर 1957 में वह अल्मोड़ा सीट से सांसद बने। 1962 के चीन युद्ध के समय अपने सारे मेडल, पुरस्कार आदि सरकार को भेंट कर दिए।
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