अतीत में कण्वाश्रम से शुरू होती थी बदरी-केदार यात्रा, जुटता था 'महाकुंभ'
अतीत में कण्वाश्रम से ही बदरीनाथ व केदारनाथ की यात्रा शुरू होती थी, जिसके लिए यहां यात्रियों का 'महाकुंभ' जुटता था।
By Edited By: Updated: Wed, 06 Jun 2018 05:15 PM (IST)
पौड़ी गढ़वाल, [अजय खंतवाल]: ऐतिहासिक कण्वाश्रम भले ही आज अपनी पहचान को मोहताज हो, लेकिन इसका अतीत स्वर्णिम रहा है। एक दौर ऐसा भी था, जब कण्वाश्रम का महत्व कुंभनगरी हरिद्वार से अधिक हुआ करता था। तब कण्वाश्रम से ही बदरीनाथ व केदारनाथ की यात्रा शुरू होती थी, जिसके लिए यहां यात्रियों का 'महाकुंभ' जुटता था।
महर्षि कण्व की तपोस्थली एवं चक्रवर्ती सम्राट राजा भरत की जन्मस्थली होने के बावजूद कण्वाश्रम आज भी उपेक्षित है। जहां एक दौर में देश-दुनिया से यात्रियों का जमावड़ा लगता था, आज वहां सन्नाटा पसरा हुआ है। 19वीं सदी के शुरुआती दौर तक बदरीनाथ व केदारनाथ जाने वाले यात्री अनूपशहर (लालढांग) होते हुए कण्वाश्रम (चौकीघाटा) पहुंचते थे। यहां से वे महाबगढ़-द्वारीखाल-बिलखेत होते हुए नयार नदी (नारद गंगा) के तट पर पहुंचते थे। नदी को पार करने के बाद यात्रा मार्ग नैथाणा, अदवाणी, टेका का मांडा व चेतकोटी होते हुए श्रीनगर जाता था। श्रीनगर से ही बदरी-केदार की मुख्य यात्रा शुरू होती थी।
प्रसिद्ध इतिहासकार शिवप्रसाद डबराल 'चारण' द्वारा लिखित 'उत्तराखंड का इतिहास' में उल्लेख है कि कई यात्री हरिद्वार से भी श्रीनगर पहुंचते थे। लेकिन, इस मार्ग पर जान का खतरा अधिक रहता था। लक्ष्मणझूला से आगे कई स्थानों पर मार्ग इस कदर संकरा था कि चट्टान को पकड़े बिना आगे खिसक पाना संभव न था। यही नहीं, पथिक को एक पैर पर ही सरकते हुए आगे बढ़ना पड़ता था। चट्टान की तलहटी में बह रही गंगा नदी की भीषण गर्जना पथिक का दिल दहला देती थी। वर्ष 1624 में जेसुइट पादरी ऐंद्रा इस बीहड़ मार्ग से बदरीनाथ होते हुए तिब्बत की छपराणमंडी तक पहुंचे। लेकिन, इसके पौने दो सौ वर्ष बाद कैप्टन हार्डविक ने मार्ग की बीहड़ता को देखते हुए श्रीनगर-कण्वाश्रम मार्ग से ही हरिद्वार पहुंचने में भलाई समझी। वर्ष 1790 में फ्रांसिसी डेनियल ब्रदर्स भी इसी मार्ग से बदरीनाथ गए थे।16वीं-17वीं सदी का महत्वपूर्ण मार्ग रहा है यह
वरिष्ठ साहित्यकार योगेश पांथरी के अनुसार ऐतिहासिक व पुरातात्विक सर्वे बताते हैं कि कण्वाश्रम से ही बदरीनाथ की मुख्य यात्रा शुरू होती थी। 16वीं व 17वीं सदी के यूरोपियन यात्रियों ने भी अपने संस्मरणों में इस मार्ग का जिक्र किया है। बताया कि इस मार्ग पर जगह-जगह छोटे-छोटे गांव थे, सो यात्रियों को पानी के साथ ही खाना भी आसानी से मिल जाता था। अच्छा हो कि इस मार्ग को दोबारा यात्रा के लिए खोलने के जतन किए जाएं। इससे आर्थिकी को मजबूती मिलेगी।यह भी पढ़ें: स्वर्णिम इतिहास की गवाही देगी सम्राट भरत की जन्मस्थली
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