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लोगों को भा रही है कांटों से बनी ये ज्वैलरी, दिल्ली से मुंबर्इ तक है डिमांड, जानिए

पौड़ी जिले में महिलाएं कांटेदार बांस को इस खूबसूरती से दुनिया के समक्ष पेश कर रही हैं कि हर कोर्इ उनका दीवाना है। महिलाएं इनसे ज्वैलरी बना रही हैं।

By Raksha PanthariEdited By: Updated: Tue, 30 Oct 2018 09:16 AM (IST)
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लोगों को भा रही है कांटों से बनी ये ज्वैलरी, दिल्ली से मुंबर्इ तक है डिमांड, जानिए
कोटद्वार, [अजय खंतवाल]: रामबांस से बने कुंडल, हार व मांग टीका। फैशन के इस दौर में सब-कुछ बिकता है। बस! जरूरत है उसे आकर्षक कलेवर में जमाने के समक्ष पेश करने की। पौड़ी जिले में यमकेश्वर ब्लाक के ग्राम भैंसखाल (किमसार) की महिलाएं कुछ ऐसी ही सोच के साथ कांटेदार बांस को इस खूबसूरती से दुनिया के समक्ष पेश कर रही हैं। नतीजा, यह कांटेदार पौधा जहां लोगों के दिलों को जीत रहा है, वहीं ग्रामीणों की आर्थिकी संवारने में भी अहम भूमिका निभा रहा है। वर्तमान में रामबांस के रेशों से 30 महिलाएं प्रतिमाह पांच-पांच हजार रुपये कमा रही हैं।

तमाम औषधीय गुणों से लबरेज होने के बावजूद रामबांस को पर्वतीय क्षेत्रों में घरों के आसपास उगाना शुभ नहीं माना जाता। लेकिन, यही रामबांस यदि जेब भारी करना शुरू कर दे तो शुभ-अशुभ जैसी बातों के कोई मायने नहीं रह जाते। यही वजह है कि किमसार में रामबांस का एक खूबसूरत जंगल ग्रामीणों ने स्वयं तैयार किया है। 

महिलाएं इस जंगल से रामबांस निकालती हैं और उसके रेशों से विभिन्न उत्पाद तैयार कर उन्हें बिक्री के लिए बाजार में भेज देती हैं। यह भी बता दें कि इन महिलाओं के पास रामबांस के उत्पादों की एडवांस बुकिंग होती है, जिसके आधार पर वह उत्पाद तैयार करती हैं। 

ऐसे शुरू हुआ सफर

ओडिशा से शुरू हुआ रामबांस का यह सफर अस्सी के दशक में किमसार पहुंचा और आज ग्रामीण महिलाओं की पहली पसंद बना हुआ है। यहां रामबांस को बहुपयोगी बनाने का श्रेय गिरीश गृह उद्योग एवं रेशम उत्पादन समिति (गौरस) को जाता है। संस्था के संचालक संदीप कंडवाल बताते हैं कि उनके दादा दर्शन लाल कंडवाल ओडिशा में लकड़ी का कार्य करते थे। हालात बदले तो लकड़ी का कार्य बंद हो गया। उसी दौरान ओडिशा में उनके पिता सतीश कंडवाल व चाचा गिरीश कंडवाल जूट एवं रामबांस केंद्र में तैनात वैज्ञानिक डॉ. ध्यानी के संपर्क में आए। डॉ.ध्यानी ने उन्हें रामबांस के उपयोग की जानकारी दी। 

ओडिशा से वापस लौट वर्ष 1982 में उनके पिता व चाचा ने भैंसखाल में रामबांस लगाने का कार्य शुरू किया। संदीप बताते हैं कि इस कार्य में उनकी माता कृष्णा देवी ने भी पूरी मदद की और स्वयं रामबांस की नर्सरी तैयार की। बताया कि भैंसखाल में पांच हेक्टेयर क्षेत्र में रामबांस उगाया गया है, जिसके रेशों से ग्रामीण विभिन्न उत्पाद तैयार करते हैं। संस्था उत्पादों को बाजार में पहुंचाती है और उससे प्राप्त मुनाफे को ग्रामीणों में बांटा जाता है। 

अब शॉपिंग स्टोरों से जुड़ेंगे समूह

वर्तमान में छह स्वयं सहायता समूहों के साथ ही करीब 30 ग्रामीण महिलाएं व्यक्तिगत रूप से रामबांस के रेशे निकालकर उत्पाद तैयार कर रही हैं। पूर्व में वर्षभर उत्पाद तैयार किए जाते थे, लेकिन अब डिमांड पर ही तैयार होते हैं। संस्था ऑनलाइन शॉपिंग स्टोर (अमेजन, फ्लिप कार्ट, शॉप क्लूज) से भी वार्ता कर रही है, ताकि उत्पाद ऑनलाइन बेचे जा सकें। संदीप कंडवाल के अनुसार समूहों को जल्द शॉपिंग स्टोरों से जोड़ दिया जाएगा, ताकि भुगतान समूहों के ही खाते में आए। 

यह है भावी योजना

गौरस संस्था अब रामबांस को भैंसखाल से निकाल अन्य क्षेत्रों में ले जाने की तैयारी कर रही है। इसके लिए यमकेश्वर ब्लाक के आसौं दमराड़ा व धारकोट में बंजर भूमि पर रामबांस लगाया गया है। धारकोट में रामबांस से रेशा निकालने का कार्य भी शुरू हो चुका है। प्रयास है कि अन्य गांवों की महिलाओं को भी रामबांस के जरिये सीधे रोजगार से जोड़ा जा सके।

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