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वनवासियों के लिए स्वयंसेवक नहीं बल्कि देवी हैं खीमा, समाज से कटे वर्ग का बदल दिया जीवन

खीमा जेठी एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिन्होंने उत्तराखंड की वनराजी जनजाति के उत्थान के लिए वर्षों से काम किया है। उन्होंने इस समाज को शिक्षा स्वास्थ्य और सरकारी सुविधाओं के प्रति जागरूक किया है। खीमा ने वनराजी समाज को भूमि अधिकार दिलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके प्रयासों से इस समाज की आबादी में वृद्धि हुई है और महिलाएं भी सशक्त हुई हैं।

By Jagran News Edited By: Shivam Yadav Updated: Thu, 10 Oct 2024 07:49 PM (IST)
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गांव पहुंचकर वनराजी महिलाओं व बच्चों के लिए विधिक जागरूकता शिविर का आयोजन करती हैं खीमा जेठी। सौ. स्वयं

ओपी अवस्थी, पिथौरागढ़। पराविधिक स्वयंसेवक यानी पैरा लीगल वालंटियर (पीएलवी) खीमा जेठी वास्तव में समाज के अंतिम छोर पर खड़े और वंचित वर्ग के लिए किसी देवी से कम नहीं हैं। 

पिथौरागढ़ व चंपावत जिले के 10 गांवों में सिमटी उत्तराखंड की एकमात्र आदिम जनजाति वनराजी के उत्थान के लिए खीमा जेठी वर्षों से समर्पित हैं। 2019 में पीएलवी बनने के बाद जंगल के बीच रहने वाले भूमिहीन वनराजी समाज को उनके अधिकार, हक-हकूक से भिज्ञ कराकर जागरूक कर रही है। इन्हें सरकार से भूमि के पट्टे दिला भी चुकी हैं और संघर्ष अभी जारी है। 

दुर्गम पैदल मार्गों से वनराजियों के बीच जाकर महिलाओं को स्वास्थ्य व शिक्षा के प्रति जागरूक कर आगे बढ़ा रहीं हैं। उनके प्रयास का ही नतीजा है शहर व भीड़भाड़ से दूर रहने वाले इस समाज की बेटियां स्कूल जाने लगी हैं।

पिथौरागढ़ जिले के नेपाल सीमा से लगी तहसील धारचूला और डीडीहाट की नौ और चंपावत की एक बस्ती में समाज की अति निर्बल वनराजी जनजाति निवास करती है। स्थानीय बोलचाल में इन्हें वनरावत कहा जाता है। इनकी कुल आबादी करीब एक हजार है। 

भूमिहीन यह जनजाति अतीत से ही वनों पर निर्भर रही है और आज भी उसकी गुजर-बसर का माध्यम जंगल ही है। कभी पहाड़ व गुफाओं में रहने वाले ये लोग आज कच्चे-पक्के घरों में भले रह रहे हैं लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक जीवन का इनका पिछड़ापन इन्हें अंतिम पायदान पर रखने वाला रहा है। 

गांव पहुंचकर वनराजी महिलाओं को उनके अधिकारों व योजनाओं के बारे में बतातीं खीमा जेठी। सौ. स्वयं

इस समाज की महिलाएं तो दूर पुरुष भी भीड़ भाड़ व दूसरे समाज के लोगों से बात करने से कतराते थे। समाज की इन्हीं कमजोरियों व पीड़ा को दूर करने के लिए आगे आईं तहसील डीडीहाट के जेठी गांव निवासी सामाजिक कार्यकर्ता खीमा जेठी। 23 वर्ष से वनराजि समाज को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए जुटी खीमा का संघर्ष बड़ा था लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।

कठिन डगर से सफलता का सफर 

खीमा जेठी को अपने घर से वनराजी गांवों तक पहुंचने के लिए दस-पंद्रह किमी से अधिक पैदल दूरी नापनी पड़ती थी। उसके घर से सबसे निकट का वनराजि गांव पुलेख दस किमी की दूरी पर है। इन गांवों तक पहुंचने के लिए पगडंडी,नदी-नाले और जंगल को पार करना पड़ता है। 

स्वयं एक सामान्य आय वाले परिवार की खीमा ने स्वयं सेवी संस्था से जुड़ कर वनराजी समाज खासकर महिलाओं से मिल कर उन्हें सरकार से मिलने वाली सुविधाओं की जानकारी देनी आरंभ की। उनके अधिकार व कर्तव्य समझाए। बालिकाओं को स्कूल जाने के लिए प्रेरित किया। 

नजदीकी कस्बों में लगने वाले विभिन्न विभागीय शिविरों में जाने के लिए तैयार किया। यहीं से वनराजी महिलाओं को अपने अस्तित्व का आभास होने लगा। बालिकाएं शिक्षा की तरफ उन्मुख होने लगी। 10-15 किमी का पैदल जंगली मार्ग पार कर बालिकाएं स्कूल जाने लगीं  परिणाम यह रहा कि समाज की एक बालिका आज ग्रेजुएट है। वर्तमान में पांच बालिकाएं उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं।

बैठकों से लाभ लेने लगा समाज

कभी अपने घर-परिवार छोड़ कहीं भी जाने से बचने वाली महिलाएं वर्तमान में अब अपने गांवों में बैठक करने लगी हैं। दरअसल खीमा जेठी वर्ष 2019 में पैरा लीगल वालंटियर नियुक्त हुई और सबसे पहले उन्होंने भूमिहीन वनराजी समाज भूमि का अधिकार दिलाने को संघर्ष किया। 

अर्पण संस्था के साथ जुड़कर वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत 83 परिवारों को वन भूमि अधिकार पत्र दिलाने में खीमा का प्रयास सराहनीय रहा। 10 परिवारों को सरकारी ग्रांट के तहत भूमि उपलब्ध कराई। आधार, राशन कार्ड के अलावा प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, श्रमिक कार्ड का लाभ दिलाया। 

इतना ही नहीं राजी जनजाति के पुरुषों की शराब पीने लत को छुड़ाने के लिए काउंसलिंग कराई। समाज के लोगों को आज भी जब आय, जाति, स्थायी निवास, जन्म ,मृत्यु प्रमाण समेत कोई भी काम होते हैं तो वे खीमा से संपर्क करते हैं।

2011 की जनगणना में 526, आज 1006 की आबादी

खीमा बताती हैं कि 2011 की जनगणना के अनुसार वनरावतों की कुल आबादी 526 थी। दरअसल, शिक्षा व स्वास्थ्य जागरूकता व सुविधाओं के अभाव के चलते शिशु मृत्यु दर अधिक थी। घटती आबादी से इस एकमात्र जनजाति के अस्तित्व पर भी खतरा दिखने लगा था। 

धीरे-धीरे सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर प्रयास रंग लाए। महिलाओं से लगातार संवाद किया गया। यही वजह रही कि 2014-15 के बाद से शिशु मृत्यु के आंकड़े घटने लगे। महिलाओं के स्वास्थ्य व पोषण में सुधार आया। वर्तमान में इनकी आबादी 1006 हो चुकी है।

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